August 13, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण – एक परिचय अत्यन्त प्राचीन काल की बात है, सौराष्ट्रदेश के प्रसिद्ध देवनगर में शास्त्र – मर्मज्ञ सोमकान्त नामक धर्मपरायण एक नरेश थे। वे अतिशय सुन्दर, विद्वान्, धनवान्, तेजस्वी एवं पराक्रमी थे। उनकी बुद्धिमती, अनिन्द्य सुन्दरी, धर्मपरायणा सती पत्नी का नाम सुधर्मा था । सुधर्मा के गर्भ से हेमकण्ठ नामक अत्यन्त सुन्दर, शूर, पराक्रमी एवं विद्या- विनय – सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुआ। हेमकण्ठ अपने माता-पिता के सर्वथा अनुकूल था और वह सोमकान्त के शासन-कार्य में दक्षतापूर्वक सहयोग प्रदान करता रहता था । रूपवान्, विद्याधीश, क्षेमंकर, ज्ञानगम्य और सुबल नामक पाँच स्वामिभक्त अमात्य भी राजा सोमकान्त की प्रत्येक रीति से सेवा किया करते । सोमकान्त के राज्य में प्रजा समृद्ध एवं सुखी थी। वह सर्वथा निरापद जीवन व्यतीत करती थी । साधु और ब्राह्मण निश्चिन्त होकर श्रीभगवान् की आराधना किया करते थे। सहसा सोम-तुल्य राजा सोमकान्त को गलितकुष्ठ हो गया। उनके शरीर में सर्वत्र घाव हो गये। उनसे रक्त और पीब बहने लगा। नरेश ने प्रख्यात चिकित्सकों से अनेक उपचार करवाये, किंतु उनसे उनको कोई लाभ नहीं हुआ। यशस्वी नरपति अत्यन्त निर्बल तो हो ही गये थे, उनके व्रणों में कीड़े पड़ गये और उनसे दुर्गन्ध निकलने लगी। अत्यन्त दुखी होकर देवनगर-नरेश ने अपना शेष जीवन अरण्य में जाकर तपश्चरण में व्यतीत करने का निश्चय किया। उन्होंने विधिपूर्वक अपने सुयोग्य पुत्र हेमकण्ठ को आचार, धर्म और नीति की शिक्षा दी । तदनन्तर उसे राज्य-पद पर अभिषिक्त कर दिया । नरेश ने अपने परम बुद्धिमान् एवं राजभक्त क्षेमंकर, रूपवान् और विद्याधीश नामक अमात्यत्रय को युवराज के सहयोग से सुचारुरूप से राज्य-संचालन का आदेश प्रदान किया । तदनन्तर राजा सोमकान्त ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों की पूजा की। फिर उन्हें विविध प्रकार के व्यंजनों से तृप्तकर बहुमूल्य दक्षिणाएँ प्रदान कीं। राजा वन के लिये प्रस्थित हुए तो प्रजावत्सल नरेश के वियोग की कल्पना से समस्त प्रजा व्याकुल हो गयी। हेमकण्ठ के दुःख की सीमा नहीं थी । वह प्रजा के साथ रोता हुआ पिता के साथ पीछे-पीछे चल रहा था, किंतु नरेश ने अपनी सहधर्मिणी सुधर्मा तथा सुबल और ज्ञानगम्य- दो अमात्यों के अतिरिक्त अन्य सबको समझाकर लौट जाने का आदेश दिया। हेमकण्ठ को विवशतः अपनी प्रजा के साथ लौटना पड़ा। चिन्तित, दुखी, पीड़ित, निराश और उदास नरेश अपनी पत्नी सुधर्मा और दोनों अमात्यों के साथ वन के कष्ट सहते चले जा रहे थे। सती सुधर्मा अपने पति की निरन्तर सेवा किया करती और दोनों मन्त्री उनके लिये फल-फूल ढूँढ़कर ले आते। इस प्रकार यात्रा करते हुए वे सघन वन में एक सरोवर के तट पर पहुँचे। सोमकान्त व्रणों की पीड़ा और यात्रा के कष्ट से लेट गये थे। सुधर्मा उनके चरण दबा रही थी। दोनों मन्त्री फल-मूल के लिये कुछ दूर निकल गये थे। उसी समय जल भरने के लिये कलश लिये एक तेजस्वी मुनिकुमार सरोवर के तट पर पहुँचे। सती सुधर्मा ने उन मुनिपुत्र से पूछा — ‘आप किसके पुत्र हैं और यहाँ कैसे पधारे हैं ?’ अत्यन्त मधुर वाणी में ऋषिकुमार ने उत्तर दिया — ‘मैं महात्मा भृगु की सती पत्नी पुलोमा का पुत्र हूँ। च्यवन मेरा नाम है। आपलोग कौन हैं और इस निबिड़ वन में कैसे आये हैं?’ अत्यन्त दुखी सुधर्मा ने मुनिकुमार से अपना विस्तृत परिचय देते हुए कहा — ‘महात्मन् ! परम प्रतापी, समस्त ऐश्वर्यों का उपभोग करने वाले मेरे स्वामी पता नहीं, किस कर्म का फल भोग रहे हैं ? ऋषि स्वाभाविक दयालु होते हैं। आप दयापूर्वक हमारे कल्याण का कोई उपाय कीजिये।’ अत्यन्त दुःख के कारण रानी के नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। मुनिपुत्र च्यवन ने चुपचाप सरोवर के जल से कलश भरा और शीघ्रता से अपने आश्रम पहुँचे। वहाँ महर्षि भृगु ने उनसे विलम्ब का कारण पूछा तो उन्होंने राजा सोमकान्त की दुर्दशा और उनकी पत्नी की अद्भुत सेवा का अत्यन्त करुण वर्णन सुनाया । कृपामय महात्मा भृगु ने अपने पुत्र से कहा — ‘बेटा! तुम उन लोगों को यहीं ले आओ ।’ च्यवन पुनः सरोवर-तट पर पहुँचे। तब तक राजा के दोनों अमात्य भी वहाँ आ गये थे। च्यवन ने महारानी से कहा — ‘माता ! मेरे तपस्वी पिता ने आप लोगों को आश्रम में बुलाया है।’ सुधर्मा अत्यन्त प्रसन्न हुई । वह अपने पति एवं सेवकोंसहित मुनिपुत्र के पीछे-पीछे महर्षि के आश्रम – पर पहुँची। महर्षि भृगु का आश्रम अत्यन्त पवित्र एवं सुखद था। उसमें सर्वत्र विविध प्रकार के सुगन्धित पुष्प खिले थे। आश्रम में वृक्षों पर विविध प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे। विडाल, नेवला, बाज, मयूर, सर्प, गज, गाय, सिंह और व्याघ्र आदि सभी प्राणी अपना वैरभाव त्यागकर एक साथ सुखपूर्वक रह रहे थे । वेद-पाठ हो रहा था और यज्ञ-धूम से समस्त आश्रम पावनता का विग्रह बना हुआ था । सोमकान्त, उनकी पत्नी सुधर्मा और दोनों मन्त्रियों ने व्याघ्रचर्म पर आसीन परम तेजस्वी तपस्वी महर्षि भृगु को देखा तो दण्ड की भाँति उनके चरणों पर गिर पड़े। नरेश ने हाथ जोड़कर निवेदन किया — ‘प्रभो! आपके दर्शन से मेरे पुण्य उदित हो गये। मैंने जीवनभर धर्म का पालन किया है, किंतु पता नहीं, मेरे किस महान् पातक से मेरी ऐसी दुर्दशा हो रही है कि मेरा जीवन दुर्वह हो गया है। मेरे सभी प्रयत्न विफल हो गये हैं । अब मैं आपकी शरण में हूँ। आपके आश्रम में हिंस्र पशुओं ने भी अपना सहज वैर त्याग दिया है। दयामय ! आप मुझपर दया करें।’ नरेश के करुण वचन सुन महर्षि भृगु कुछ क्षणों के लिये ध्यानस्थ हुए और फिर उन्होंने उनसे कहा — ‘राजन्! तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें रोग से छूटने का उपाय बताऊँगा। अभी तुमलोग यात्रा से थके हुए हो; स्नान, भोजन और विश्राम करो।’ वहाँ सबने तेल लगाकर स्नान किया और फिर वे भोजन करने बैठे। अनेक प्रकार के सुस्वादु षड्रस व्यंजन थे । राजा, रानी और अमात्य उक्त पवित्रतम आहार से पूर्ण तृप्त हुए और फिर परम त्यागी महर्षि भृगु के आश्रम में राज्योचित व्यवस्था से चकित – विस्मित नरेश अपनी पत्नी एवं सेवकोंसहित सुकोमल शय्या पर विश्राम करने लगे । रात्रि व्यतीत हुई। अरुणोदय हुआ । महर्षि भृगु स्नान, संध्या, जप और होम आदि से निवृत्त हुए ही थे कि दैनिक कृत्य कर राजा सोमकान्त ने अपनी सहधर्मिणी सुधर्मा एवं अमात्योंसहित महामुनि के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनके सम्मुख बैठ गये । ‘राजन् ! पूर्व के जिन कुकर्मों से तुम्हें गलितकुष्ठ की यह दारुण यातना सहनी पड़ रही है, उसे बता रहा हूँ; तुम ध्यानपूर्वक सुनो!’ करुणहृदय महात्मा भृगु राजा सोमकान्त को उनके पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाते हुए कहने लगे — ‘विन्ध्यगिरि के निकट कोल्हार नामक सुन्दर नगर चिद्रूप नामक एक धन- वैभवसम्पन्न वैश्य था । पति के अनुकूल जीवन व्यतीत करने वाली उसकी सुन्दरी पत्नी का नाम सुभगा था। तुम उसी सुभगा के पुत्र थे । तुम्हारा नाम था कामद।’ एकमात्र पुत्र होने के कारण माता-पिता ने तुम्हारा अतिशय प्रीतिपूर्वक पालन किया। युवक होने पर कुटुम्बिनी नामक सुन्दरी और सद्धर्मपरायणा युवती से तुम्हारा विवाह हुआ । कुटुम्बिनी के गर्भ से तुम्हारे सात कन्याएँ और पाँच पुत्र उत्पन्न हुए । कुछ समय बाद तुम्हारे पिता चिद्रूप का शरीरान्त हो गया। तुम्हारी पतिपरायणा माता सुभगा अपने पति के साथ सती हो गयी। तुम धनसम्पन्न और पूर्ण स्वतन्त्र थे। दुराचरण में तुमने अपना सर्वस्व नष्ट कर दिया । यहाँतक कि घर भी बिक गया। तुम्हारी सरला पत्नी समझाती, पर तुम उसकी उपेक्षा कर देते । विवशतः वह अपनी संततियों के साथ अपने पिता के घर जाकर जीवन- निर्वाह करने लगी। तुम दुराचरण-सम्पन्न सर्वथा निरंकुश थे । बलपूर्वक दूसरे का धन छीनकर मद्य, मांस और परस्त्री का सेवन करते। तुम्हारी दुष्टता पराकाष्ठा पर पहुँच गयी, तब राजाज्ञा से तुम नगर से निर्वासित कर दिये गये । तुम वन में पहुँचे। वहाँ तुम दस्यु-जीवन व्यतीत करने लगे। तुमसे भयभीत होकर मनुष्य ही नहीं, पशु भी प्राण बचाकर भागते थे। तुम पर्वत की गुफा में रहते थे । तुम्हारे श्वशुर ने तुमसे भयभीत होकर तुम्हारी पत्नी और बच्चों को तुम्हारे पास पहुँचा दिया। तुम्हारी पत्नी के पास वस्त्राभरण थे और तुम्हारे पुत्र भी तेजस्वी थे; किंतु तुम रात्रि में यात्रियों को लूटकर उनके धन और स्त्री का उपभोग करते । तुम सर्वथा निर्दय और हृदयहीन हो गये थे । एक बार एक ब्राह्मण अपनी युवती पत्नी के साथ उधर से जा रहे थे। तुमने उन्हें पकड़ लिया । ब्राह्मण ने करुण प्रार्थना की, धर्मोपदेश दिया, पर तुम पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तुमने उन दीन ब्राह्मणदेवता का मस्तक उतार लिया। इस प्रकार तुम प्रतिदिन स्त्री, वृद्ध और बालकों की निर्दयतापूर्वक हत्या करते ही रहे । तुम सर्वथा विवेक- भ्रष्ट हो गये थे । तुम्हारा यौवन तो हत्या, लूट, परधन एवं पर- दारापहरण में बीता; पर देखते-ही-देखते वृद्धावस्था आ गयी। तुम निर्बल हो गये। तुम्हारा शरीर काँपने लगा और तुमको अनेक प्रकार के कष्ट होने लगे। इस स्थिति में तुम्हारा स्वजन या हितैषी कोई नहीं रहा। पुत्र और नौकर आदि सभी तुम्हारा तिरस्कार करते रहते । तुम निरन्तर दुखी रहने लगे। तुमने सोचा, ‘अपना शेष धन दान कर दूँ ।’ तुम्हारी प्रार्थना से एक ब्राह्मण वनमें गये। उनकी प्रार्थना पर ऋषिगण तुम्हारे पास आये, पर जब तुमने अपना धन उन्हें स्वीकार करने के लिये आग्रह किया, तो वे तुरंत उलटे पैर वापस चले गये । सबने एक ही बात कही- ‘तेरे जैसे अधम, हत्यारे, मद्यप, परस्त्रीगामी एवं क्रूरतम पापात्मा का दिया धन लेने का साहस कौन करेगा ?” तुम रोगाक्रान्त थे । मुनियों और ब्राह्मणों के वचन सुन मन-ही-मन पश्चात्ताप करने लगे। तुम्हारा हृदय हाहाकार कर रहा था, पर कोई वश नहीं था। तुम्हारे पास चाँदी, सोना और रत्नादि अधिक थे। तुमने ब्राह्मणों के परामर्श से एक पुरातन गणेश मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। मन्दिर के भव्य और आकर्षक बनवाने में तुम्हारा सारा धन समाप्त हो गया। कुछ तुम्हारी स्त्री और कुछ तुम्हारे पुत्रों और मित्रों ने ले लिया। कुछ ही समय बाद तुम्हारा देहावसान हो गया । यमदूतों ने तुम्हें बड़ी यातना दी । यम के पूछने पर तुमने पहले पुण्यकर्मों का फल प्राप्त करना स्वीकार किया । फलतः अत्यधिक कान्तिपूर्ण गणेश मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने के कारण तुम सुन्दर राजा सोमकान्त हुए और तुम्हें अत्यन्त रूपवती धर्मपत्नी भी प्राप्त हो गयी । ” सर्वथा निःस्पृह, परम वीतराग, दयामूर्ति महर्षि भृगुराजा सोमकान्त को उसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना रहे थे, किंतु ऋषि – वचनों पर उसे विश्वास नहीं हुआ । राजा के मन में सन्देह उत्पन्न होते ही उनके शरीर से विविध रंग के पक्षी निकल पड़े और उनके अंग-प्रत्यंग नोच-नोचकर खाने लगे। दुःख से छटपटाते हुए राजा ने महामुनि भृगु से करुण प्रार्थना की — ‘मुनिनाथ ! आपके इस वन में पशु भी अपना सहज वैर त्याग देते हैं, फिर आपकी शरण में आये मुझ कुष्ठी को ये पक्षी कष्ट क्यों दे रहे हैं? आप कृपापूर्वक मेरी रक्षा करें।’ ‘तुमने मेरे वचन पर सन्देह किया, इस कारण मैंने तुम्हें इतना अनुभव करा दिया। अब ये पक्षी शीघ्र चले जायँगे।’ महर्षि ने क्षणभर ध्यानस्थ होने के अनन्तर कहा — ‘तुम्हारे पातक महान् हैं, तथापि मैं उन्हें दूर करने का उपाय बताऊँगा ।’ ‘हुं’ महामुनि भृगु के उच्चारण करते ही समस्त पक्षी अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर महात्मा भृगु ने राजा सोमकान्त को गणेश का ‘अष्टोत्तरशतनाम’ सुनाया और उससे अभिमन्त्रित जल राजा के शरीर पर छिड़क दिया। उक्त जल का छींटा पड़ते ही राजा की नासिका से एक छोटा काले मुखवाला बालक धरती पर गिर पड़ा। थोड़ी ही देर में वह अत्यन्त विशाल और भयानक हो गया। उसके मुख से अग्नि की ज्वालाएँ निकल रही थीं। वहाँ सर्वत्र रक्त और पीब फैल गया। भयाक्रान्त आश्रम- वासियों को भागते देखकर महर्षि भृगु ने उस पुरुष से उसका परिचय पूछा। उक्त भयानक पुरुष ने उत्तर दिया — ‘मैं प्रत्येक प्राणी के शरीर में रहनेवाला पापपुरुष हूँ । आपके अभिमन्त्रित जल का छींटा पड़ने से इस राजा के शरीर से निकला हूँ । आप मुझे निवास एवं भक्ष्य प्रदान कीजिये; अन्यथा मैं आपके सम्मुख ही सबके साथ इस राजा सोमकान्त को भी खा जाऊँगा ।’ महामुनि भृगु ने वहाँ से हटकर एक शुष्क आम्रवृक्ष के कोटर की ओर संकेत करते हुए उक्त पापपुरुष से कहा — ‘नीच! तू सूखे पत्तों को खाकर इस कोटर में रह; अन्यथा मैं तुझे भस्म कर दूँगा ।’ महामुनि भृगु की वाणी सुनकर पापपुरुष ने उस वृक्ष का स्पर्श किया ही था कि पक्षियोंसहित वृक्ष तुरंत जलकर भस्म हो गया। मुनि से भयभीत पापपुरुष भी उस भस्म में छिप गया। इसके अनन्तर महर्षि भृगु ने राजा सोमकान्त के समीप जाकर कहा — ‘जब तुम ‘गणेशपुराण’ सुनना प्रारम्भ करोगे, तब इस भस्म से पुनः नया आम्रवृक्ष उगेगा। जिस प्रकार यह वृक्ष धीरे-धीरे बढ़ता जायगा, उसी प्रकार तुम्हारे पाप भी नष्ट होते जायँगे । ‘ चकित होकर नरेश ने अत्यन्त विनयपूर्वक महर्षि से पूछा — ‘ मुनिवर ! ऐसा पुराण तो मैंने न कहीं देखा और न सुना ही है। वह कहाँ प्राप्त होगा और उसके वक्ता कहाँ हैं ?’ दयालु मुनि भृगु ने कहा —’पहले उसे वेदगर्भ ब्रह्मा ने महर्षि व्यास को सुनाया था और उनकी कृपा से वह पापनाशक ‘गणेशपुराण’ मुझे प्राप्त हुआ। तुम तीर्थ में जाकर पहले ‘गणेशपुराण’ – श्रवण का संकल्प कर लो ।’ महर्षि भृगु की आज्ञा से राजा सोमकान्त ने प्रख्यात भृगुतीर्थ में स्नान किया और फिर पवित्र मन से हाथ में जल लेकर संकल्प किया — ‘मैं श्रद्धा और विधिपूर्वक गणेशपुराण-श्रवण करूँगा ।’ राजा के आश्चर्य की सीमा नहीं थी । संकल्प का जल धरती पर छोड़ते ही वे पूर्णतया रोगमुक्त होकर पूर्ववत् सुन्दर और तेजस्वी हो गये। गलितकुष्ठ की पीड़ा की बात तो दूर – शरीर पर उसका कोई चिह्न भी कहीं शेष नहीं रहा । हर्षमग्न नरेश महामुनि के समीप पहुँचे तो उनके चरणों पर गिर पड़े। उन्होंने अत्यन्त विनयपूर्वक कहा — ‘मुनिनाथ! अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि गणेशपुराण-श्रवण के संकल्प का जल छोड़ते ही मेरी सारी व्याधियाँ दूर हो गयीं।’ महामुनि ने राजा का हाथ पकड़कर उठाया और उन्हें बैठने के लिये एक आसन दिया । राजा ने हाथ जोड़कर कहा — ‘दयामय! आपकी दया से मेरा सारा कष्ट दूर हो गया। अब आप कृपापूर्वक मुझे ‘गणेशपुराण’ की कथा सुनाइये ।’ मुनिवर भृगु ने कहा — ‘ ‘राजन् ! मैं यह पुराण तुम्हें सुनाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।’ महर्षि ने पापनाशक परम पावन गणेशपुराण की कथा प्रारम्भ करने के पूर्व उसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिये सर्वप्रथम गणेश-वन्दना की — नमस्तस्मै गणेशाय ब्रह्मविद्याप्रदायिने । यस्यागस्त्यायते नाम विघ्नसागरशोषणे ॥ ‘जिनका नाम विघ्नों का समुद्र सोख लेने के लिये अगस्त्य का काम करता है, उन ब्रह्म-विद्या- प्रदाता गणेश को नमस्कार है।’ (गणेशपुराण १ । १ । १) इस प्रकार गणेशपुराण गणेश-वन्दन से प्रारम्भ हुआ । पुराण-शब्द का साधारण अर्थ है – पुराना । जिस ग्रन्थ में पुरातन कथाओं का संकलन है, वह ‘पुराण’ है । किंतु ‘पुराण’ शब्द की व्याख्या अत्यन्त विस्तृत है । श्रीमद्भागवत (१२।७।९-१० ) – के मतानुसार पुराण के दस लक्षण हैं — सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च । वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः ॥ दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः । “ पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणों के दस लक्षण हैं — ‘विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय ।’ किंतु श्रीलोमहर्षण सूतने पुराणके निम्नलिखित पाँच लक्षणोंका ही उल्लेख किया है — सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्॥ ‘मन्वन्तरविज्ञान, सृष्टिविज्ञान, प्रतिसृष्टिविज्ञान, वंशविज्ञान और वंशानुचरितविज्ञान । ‘ ये पाँचों लक्षण भी पाँच-पाँच प्रकार के बताये गये हैं; किंतु विस्तार – भय से यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ‘पुराण’ अनादि हैं । प्रारम्भ में एक ही पुराण था, पर था अत्यन्त विस्तृत । उसकी श्लोक-संख्या शतकोटि थी। उसे लोकपितामह ने ऋषियों को सुनाया था । फिर वेदार्थ-दर्शन की शक्ति के साथ अनादिकालीन पुराण को लुप्त होते देखकर भगवान् कृष्णद्वैपायन ने पुराणों का प्रणयन किया। उन्होंने पुराणों की श्लोक – संख्या चार लाख कर दी और उन पुराणों में निष्ठा के अनुरूप आराध्य की प्रतिष्ठाकर कृपामूर्ति महर्षि व्यास ने चारों वर्णों के लिये वेदार्थ सहज सुलभ कर दिया । अष्टादश पुराण प्रसिद्ध हैं, किंतु कुछ विद्वान् उनके महापुराण, उपपुराण, अतिपुराण और पुराण भेद करते हैं और इन प्रत्येक की भी अष्टादश संख्या बतलाते हैं। 1 इस प्रकार गणेशपुराण अतिपुराण है, किंतु इस पंच लक्षणात्मक गणेशपुराण की अपनी विशिष्टता है। आदिदेव गणपति के उपासकों का तो यह प्राणप्रिय कण्ठहार है ही, समस्त आस्तिक-समुदायका अत्यन्त प्रिय और आदरणीय ग्रन्थ है। गणेश – साहित्य में इसका स्थान प्रधान है। ‘मुद्गलपुराण’ से भी प्राचीन होने के कारण स्वाभाविक ही इसकी मान्यता अधिक है। श्रुतियों में जिस सर्वात्मा, सर्वत्र, अनादि, अनन्त, अखण्ड-ज्ञानसम्पन्न पूर्णतम परमात्मा और उनके पंचदेवात्मक स्वरूप का वर्णन किया गया है, उसके अनुसार परब्रह्म परमेश्वर गणेश का विस्तृत विवेचन ‘गणेशपुराण’ में किया गया है। वहाँ आदिदेव गणेश को प्रणवरूपी बताया गया है और कहा गया है कि ‘समस्त देवता और मुनि उन्हीं परमप्रभु का स्मरण करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र उन्हीं की पूजा करते हैं। वे सर्वकारण-कारण प्रभु ही समस्त जगत् के हेतु हैं। उन्हीं की आज्ञा से विधाता सृष्टि रचते हैं, विष्णु पालन एवं शिव संहार करते हैं। उन्हीं परमप्रभु के आदेश से सूर्यदेव चलते हैं, वायु बहती है, पृथ्वी पर वृष्टि होती है और अग्नि प्रज्वलित होती है। अमित महिमामय प्रभु मंगलमय हैं, करुणामय हैं ।’ गणेशपुराण दो खण्डों में विभक्त है। पूर्वार्ध (उपासना- खण्ड)-में ९२ अध्याय और ४,०९३ श्लोक हैं। दूसरा उत्तरार्ध (क्रीडाखण्ड) १५५ अध्याय में पूर्ण हुआ है। उसकी श्लोक-संख्या ६,९८६ है । इस प्रकार सम्पूर्ण गणेशपुराण २४७ अध्यायों और ११,०७९ श्लोकों में वर्णित है। पुराण की दृष्टि से इसका कलेवर भी लघु नहीं है। इसके प्रधान विषय प्रथमेश्वर गणेश ही हैं । अत्यन्त प्रांजल भाषा में गणेश स्वरूप, गणेश- तत्त्व, गणेश-महिमा, गणेश-मन्त्र-माहात्म्य एवं गणेश की सुमधुर लीला-कथा के माध्यम से महिमामय गणेश- स्तवन ‘गणेशपुराण’ में इस प्रकार वर्णित हैं कि श्रोता अन्त तक भगवान् गणेश के ध्यान में तन्मय रहता है। लीला-कथा उसके मर्म को स्पर्श करती चलती है। गणेशपुराण में आद्यन्त सत्त्व की प्रतिष्ठा एवं तम का विरोध पाया जाता है। आसुरी प्रवृत्तियों के विनाश एवं दैवी – सम्पदाओं की स्थापना एवं वृद्धिके लिये ही गजमुखकी अवतारणा होती है। एक बार ग्रन्थ आरम्भ कर लेने पर पाठक और श्रोता के लिये उसे बीचमें छोड़ देना सहज सम्भाव्य नहीं होता। किंतु गणेशके गम्भीरतम वचनोंको समझनेके लिये विद्या, बुद्धि एवं गहन विचारके साथ श्रद्धा और भक्ति भी अपेक्षित है। शौनकमुनिने बारह वर्षोंका ज्ञानयज्ञ किया था। वहाँ अठारह पुराणोंकी मंगलमयी कथा हुई थी । उस कथा से अतृप्त ऋषियों ने सूतजी से श्रीभगवान् की भुवनपावनी लीला-कथा और सुनाने की प्रार्थना की। तब सूतजी ने उन्हें गणेशपुराण सुनाकर तृप्त किया । यज्ञ के नष्ट होने पर दक्ष अत्यन्त दुखी थे। उस समय महर्षि मुद्गल ने उन्हें गणेशपुराण की लीला-कथा सुनायी और वहीं ब्रह्मा से सुने हुए महर्षि व्यास-कथित गणेशपुराण को महामुनि भृगु ने देवनगरनरेश सोमकान्त को उनके लौकिक एवं पारलौकिक मंगल के लिये सुनाने की कृपा की। उपासनाखण्ड में परात्पर परमेश्वर, सच्चिदानन्दघन गणेश का विस्तृत वर्णन है। गणेश जगत्कर्ता, जगत्स्वरूप, जगत्पालक, जगदाधार, सर्वसमर्थ, सर्वान्तर्यामी, सर्वत्र एवं सर्वान्तरात्मा हैं। ब्रह्मादि देव उनकी इच्छा का अनुसरण करते हैं। वे भक्तों के विघ्नों का विनाश करने वाले मंगलमूर्ति, मंगलालय, विघ्नकर्ता, विघ्नहर्ता एवं विघ्नराज हैं। वे परब्रह्मस्वरूप सर्वानन्द- प्रदाता सर्वानन्दमय हैं। पितामह ने सृष्टिरचना प्रारम्भ की, उस समय गणेश ने उन्हें सहायता प्रदान की। इस वर्णन के अनन्तर महर्षि भृगु ने गृत्समद, रुक्मांगद एवं त्रिपुरासुर का वृत्तान्त सुनाया। फिर उन्होंने महिमामय ‘गणेशसहस्रनाम’ का गान किया। इसी ‘गणेशसहस्रनाम’ के द्वारा भगवान् शंकर त्रिपुर-वध करने में सफल हुए। इसके बाद गणेशपार्थिव-पूजा, गणेशव्रत, संकष्ट- चतुर्थीव्रत, अंगारकचतुर्थीव्रत एवं उसका माहात्म्य सुनाकर महामुनि ने सोमकान्त को गणेश द्वारा चन्द्रमा को शाप – प्रदान एवं उनपर अनुग्रह की कथा सुनायी । तदनन्तर उन्होंने दूर्वा-माहात्म्य का वर्णन किया । फिर उपासनाखण्ड में पुत्रप्राप्त्यर्थ संकष्टचतुर्थीव्रत के सोद्यापन वर्णन के अनन्तर तारकासुर वध, काम-दहन, परशुराम का तप एवं उन्हें गणेश दर्शन की प्राप्ति आदि कथाओं में सर्वत्र करुणामूर्ति प्रभु गणेश की करुणा, उनकी भक्तवत्सलता एवं महिमा के दर्शन होते हैं । इसके बाद स्कन्दोत्पत्ति, मदन की पुनरुत्पत्ति, देवर्षि नारद की प्रेरणा से शेष के द्वारा गजानन की आराधना एवं स्तुति का विशद वर्णन करते हुए गजवक्त्र का माहात्म्य गान किया गया है। गजवक्त्र के मंगलमय नाम और रूप का निरूपण करने के साथ उपासनाखण्ड पूरा हुआ है। इसके अनन्तर गणेशपुराण के उत्तरार्ध (क्रीडाखण्ड)- में देवाधिदेव गजमुख के अवतरित होकर पृथ्वी का भार उतारने की पुण्यमयी कथा का वर्णन किया गया है। उन कथाओं में गणेश की बाल लीलाओं, असुर-संहार एवं भक्तों की कामना – -पूर्ति का मर्मस्पर्शी चित्रण है। गणेशपुराण क्रीडाखण्ड के अनुसार सर्वसमर्थ भक्तवत्सल करुणामय गणेश प्रत्येक युग में त्रैलोक्यविजयी अजेय असुर के वध के लिये अवतरित होते हैं । अनीति, अधर्म एवं अनाचरणसम्पन्न असुरों का विनाश होता है और धर्ममूर्ति परमात्मा गजानन धर्म की स्थापना करते हैं। धरणी का भार उतरता है और दुखी देवता, ऋषि तथा ब्राह्मणादि प्रसन्न होकर अपने धर्म का पालन करने लगते हैं। सत्ययुग में परमप्रभु गणेश का प्रथम अवतार महोत्कट विनायक के रूप में हुआ था। परमतेजस्वी परमप्रभु विनायक के दस भुजाएँ थीं और सिंह उनका वाहन था। वे महात्मा कश्यप की परम सती सहधर्मिणी अदिति यहाँ प्रकट हुए थे। उस अवतार में उन्होंने देवान्तक और नरान्तक-जैसे दुर्दान्त असुरों का वध किया था । त्रेता में इन त्रैलोक्यत्राता प्रभु ने शिवप्रिया पार्वती के यहाँ अवतार लिया। उनकी अंगकान्ति चन्द्र-तुल्य थी। उनके छः हाथ थे और उनका वाहन मयूर था। उन्होंने माता-पिता, ऋषियों, ऋषिपत्नियों एवं मुनि-पुत्रों को अलौकिक सुख प्रदान किया । तदनन्तर अनेक असुरों के साथ वरप्राप्त महादैत्य सिन्धु का वधकर त्रैलोक्य में धर्म की स्थापना की। देवता, मुनि, ब्राह्मणों एवं सद्धर्मपरायण पुरुषों का दुःख दूर हुआ; उन्हें सुख-शान्ति प्राप्त हुई । द्वापर में सिन्दूरासुर के क्रूरतम शासन में त्रैलोक्य विकल-विह्वल हो गया था। देवता और ऋषि आदि तपस्वी गिरि-गुफाओं और अरण्यों में छिप गये थे। उस समय परमप्रभु विनायक गौरी के यहाँ प्रकट हुए। अपने दिये वचन के अनुसार उन्होंने भगवान् शिव से कहा कि ‘आप मुझे राजा वरेण्य की सद्यः प्रसूता सहधर्मिणी पुष्पिका के समीप पहुँचा दें।’ आशुतोष शिव की आज्ञा से नन्दी उन्हें वरेण्य- पत्नी पुष्पिका के प्रसूति गृह में रख आये । वे परमप्रभु अरुणवर्ण के थे। उनके चार भुजाएँ थीं और उनका वाहन मूषक था। उनका नाम ‘गजानन’ प्रसिद्ध हुआ । महर्षि पराशर एवं उनकी सती धर्मपत्नी वत्सला ने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उन परमप्रभु गजानन का पालन किया। उन दयामय ने महादैत्य सिन्दूर को मुक्ति प्रदानकर त्रैलोक्य की भयानक विपत्ति का निवारण किया। तदनन्तर करुणामय गजानन ने अपने पिता राजा वरेण्य के अशेष कल्याण के लिये उन्हें अमृतमय उपदेश दिया। वह ‘गणेशगीता’ के नाम से प्रसिद्ध है । इस गीता में भगवान् गजानन ने सर्वप्रथम सांख्यसारतत्त्व का प्रतिपादन किया है। तदनन्तर कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं कर्मसंन्यास-योग का निरूपण कर योगाभ्यास की प्रशंसा करते हुए बुद्धि-योग और उपासना-योग का सुविस्तृत वर्णन किया है। फिर करुणामय प्रभु गजानन ने विश्वरूपदर्शन एवं क्षेत्रज्ञानज्ञेय-विवेक का अत्यन्त प्रभावोत्पादक निरूपण करते हुए योगोपदेशपूर्ण एवं विविध कल्याणकर वचनों से अपना सदुपदेश पूर्ण किया। गोपालनन्दन योगेश्वर श्रीकृष्ण – कथित श्रीमद्भगवद्गीता की भाँति यह गणेशगीता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं परमोपयोगी है । श्रीमद्भगवद्गीता के प्रायः समस्त विषय इस गणेशगीता में आ गये हैं। इसके अनन्तर गणेशपुराण में कलि में होनेवाले अधर्म एवं अनाचार का वर्णन करते हुए इस युग के अन्त में सर्वभूतहितैषी गणेश के अवतार का वर्णन है । कलि में जब पाप का साम्राज्य व्याप्त हो जायगा, तब वे प्रभु गणेश श्याम कलेवर में अवतरित होंगे। उनका नाम ‘धूम्रकेतु’ होगा। उनके दो भुजाएँ होंगी। अश्वा- रूढ़ धूम्रकेतु पापों का सर्वनाश कर धर्म की प्रतिष्ठा कर देंगे और फिर सत्ययुग के मंगलमय चरणों से धरती प्रमुदित होगी। राजा सोमकान्त ने यह पुण्यमयी गणेश-लीला-कथा अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एक वर्ष तक सुनी। उस कथा-श्रवण के अद्भुत प्रभाव से वे रोग से सर्वथा मुक्त एवं परम पवित्र हो गये । उनके लिये पवित्रतम गणेश-लोक से विमान अवतीर्ण हुआ। गणेश-दूतों ने राजा से उस विमान में बैठने की प्रार्थना की, तब अत्यन्त उपकृत भाग्यवान् राजा सोमकान्त ने महर्षि भृगु के चरणों में प्रणाम किया और उनकी अनुमति प्राप्तकर अपनी सहधर्मिणी और अमात्य-द्वयसहित विमान में बैठ गणेश-लोक के लिये प्रस्थित हुए। विमान में आरूढ़ होने पर राजा के पूछने पर गणेश-दूतों ने काशी विश्वेश्वर के आवरणगत रहने वाले छप्पन गणेश का नाम और उनके स्मरण का माहात्म्य सुनाया । पुराण के अन्तिम अध्याय में उसके श्रवण का माहात्म्य गान किया गया है। गणेशपुराण के पाठ, श्रवण और उसकी पूजा की तो अमित महिमा बतायी ही गयी है, ग्रन्थरत्न के लिखने और उसे घर में रखने का भी फल बतलाते हुए कहा गया है— यस्य गेहे गणेशस्य पुराणं लिखितं भवेत् । न तत्र राक्षसा भूताः प्रेताश्च पूतनादयः ॥ ग्रहा बालग्रहा नैव पीडां कुर्वन्ति कर्हिचित् । तद्गृहं हि गणेशेन रक्ष्यते सर्वदा स्वयम् ॥ इदं पुराणं शृणुयात् पूजयेद् वा समाहितः । तस्य दर्शनतः पूता भवन्ति पतिता नराः ॥ (श्रीगणेशपुराण २ । १५५ । ९-११) इस प्रकार इन ललित कथाओं के माध्यम से इस पुराण के द्वारा पाठकों एवं श्रोताओं को आसुरी प्रवृत्तियों से सतत सजग रहने की प्रेरणा तो प्राप्त होती ही है, दैवी सम्पदाओं एवं उनके मूलस्रोत परब्रह्म परमेश्वरं गजवक्त्र के चरणकमलों में श्रद्धा और भक्ति भी उदित होती है । उस श्रद्धा-भक्ति से दयामय गणेश सहज ही द्रवित होकर भक्त का लोक एवं परलोक – दोनों सफल कर देते हैं। अनन्त जन्मों की ज्वाला सदा के लिये शान्तकर अक्षय सुख-शान्ति प्रदान कर देते हैं। निश्चय ही यह गणेश पुराण गणेशोपासकों के लिये सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ – रत्न है। 1. (१) महापुराण – ब्राह्म, पद्म, शिव, विष्णु, भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड | (२) उपपुराण—भागवत, माहेश्वर, ब्रह्माण्ड, आदित्य, पराशर, सौर, नन्दिकेश्वर, साम्ब, कालिका, वारुण, औशनस्, मानव, कापिल, दुर्वांसस्, शिवधर्म, बृहन्नारदीय, नारसिंह और सनत्कुमार। (३) अतिपुराण—कार्तव, ऋजु, आदि, मुद्गल, पशुपति, गणेश, सौर, परानन्द, बृहद्धर्म, महाभागवत, देवी, कल्कि, भार्गव, वसिष्ठ, कर्म, गर्ग, चण्डी और लक्ष्मी । (४) पुराण – बृहद्विष्णु, शिव उत्तरखण्ड, लघु बृहन्नारदीय, मार्कण्डेय, वह्नि, भविष्योत्तर, वराह, स्कन्द, वामन, बृहद्वामन, बृहन्मत्स्य, स्वल्पमत्स्य, लघुवैवर्त और पाँच प्रकार के भविष्य । जनसामान्य में महापुराणों के अतिरिक्त अन्य सभी पुराणों की प्रसिद्धि प्रायः उपपुराणों के रूप में ही है। Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe