श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-09
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
नौवाँ अध्याय
भृगुमुनि का राजा सोमकान्त को गणेशपुराण के श्रवण का उपदेश देना
अथः नवमोऽध्यायः
राजोपदेशज्ञानोपदेशकथनं

सूतजी बोले — तदनन्तर भृगुमुनि ने क्षणभर ध्यान करके उस [राजा सोमकान्त ] -के पूर्वकर्मजनित दुःख को देखकर अत्यन्त विह्वल होकर उस राजा से कहा — ॥ १ ॥

कहाँ तुम्हारे पापों का समूह और कहाँ मेरे द्वारा कहा गया उपाय! तथापि मैं तुमसे एक उपाय कहता हूँ, जो पापों का नाश करने वाला है ॥ २ ॥ यदि तुम शीघ्र ही ‘गणेशपुराण’ का श्रवण करोगे तो दुःखरूपी समुद्र से मुक्त हो जाओगे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥

तब उस राजा से इस प्रकार कहकर [मुनि ने] गणेशजी के एक सौ आठ श्रेष्ठ नामों का जपकर [उससे] जल को अभिमन्त्रित करके राजा को अभिषिक्त किया ॥ ४ ॥ उस जल के सिंचनमात्र से [राजा के] नासारन्ध्र (नाक के छिद्र) -से छोटा-सा एक काले रंगवाला पुरुष निकलकर भूमि पर गिर पड़ा और उसी क्षण वह सात ताड़ वृक्षों के बराबर ऊँचा हो गया। वह अपना भयंकर मुख फैलाये हुए था, उसकी जिह्वा अत्यन्त भयंकर थी । उसकी आँखें रक्तवर्ण की और भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं । उसने जटा धारण कर रखी थी। उसके मुख से [कभी] अग्नि की लपटें निकलती थीं, तो कभी क्षणमात्र में वह रक्त और मवाद का वमन करने लगता था । वह दूसरे [मूर्तिमान्] अन्धकार की भाँति नेत्रों को अन्धता प्रदान कर रहा था ॥ ५–७ ॥

उसे देखकर उस आश्रम में निवास करने वाले सभी लोग भाग खड़े हुए। उसने अपने दाँतों के कटकटाने की ध्वनि से दसों दिशाओं को भर दिया था । तब द्विजश्रेष्ठ [भृगुमुनि ने] उस अद्भुत पुरुष से जानते हुए भी उस [राजा सोमकान्त]-के समक्ष पूछा — तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? – मुझे बताओ ॥ ८-९ ॥

 तब उन द्विज के पूछने पर उसने मुनि को प्रत्युत्तर देते हुए कहा — मैं प्राणियों के शरीर में स्थित रहता हूँ, मेरा नाम ‘पापपुरुष’ है ॥ १० ॥ तुम्हारे द्वारा अभिमन्त्रित जल छिड़कने से मैं राजा के शरीर से बाहर निकला हूँ, मैं भूख से पीड़ित हूँ और भोजन करना चाहता हूँ; मुझे भोजन दीजिये, नहीं तो मैं सारे लोगों को और इस सोमकान्त को भी तुम्हारे आगे ही खा जाऊँगा। हे मुने! तुमने ही मुझे इसके शरीर से बाहर निकाला है, अब कोई रमणीय स्थान मुझे निवास के लिये दो ॥ ११-१२ ॥

तब समीप जाकर मुनि ने पुनः उससे कहा —  मेरी आज्ञा से इस सीधे और सूखे आम के वृक्ष के कोटर में तुम निवास करो और गिरे हुए पत्तों को खाओ; नहीं तो मैं तुझे भस्म कर दूँगा । रे अधम ! मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती ॥ १३-१४ ॥

सूतजी बोले — हे द्विजगण ! मुनि की बात समाप्त होने पर उस [पापपुरुष]-ने उस सूखे वृक्ष का स्पर्श किया और उसके स्पर्शमात्र से वह वृक्ष भस्मीभूत हो गया ॥ १५ ॥ तब मुनि को देखकर डरा हुआ वह (पापपुरुष) उसी भस्म में विलीन हो गया। उसके छिप जानेपर [ भृगु] मुनि ने पुन: उस [राजा] सोमकान्त से कहा — ॥ १६ ॥

भृगुजी बोले — हे नृपश्रेष्ठ ! पुराण के श्रवण से जो तुम्हें पुण्य होगा, उसे तुम तबतक प्रतिदिन इस भस्म में ही डालते रहना, जबतक कि यह आम्रवृक्ष [पूर्व की भाँति] खड़ा न हो जाय। हे राजन् ! इस वृक्ष के वृद्धि को प्राप्त होने पर तुम निष्पाप हो जाओगे ॥ १७-१८ ॥

राजा ने कहा — हे ब्रह्मन् ! गणेशजी के पुराण को, जिसे न देखा गया है और न ही सुना गया है, हे मुने ! वह अथवा उसका व्याख्याता कहाँ प्राप्त होगा ? ॥ १९ ॥

मुनि बोले — पूर्वकाल में [ वह पुराण] ब्रह्माजी द्वारा बुद्धिमान् वेदव्यास से कहा गया । व्यासजी से यह पापनाशक पुराण मुझे विदित हुआ और मैं तुमसे कहूँगा। तुम तीर्थ में सम्यक् रूप से स्नान करो और हे सुव्रत ! ‘मैं पुराण का श्रवण करूँगा’ — इस प्रकार का संकल्प करो ॥ २०-२१ ॥

सूतजी बोले — तदनन्तर भृगुजी द्वारा प्रेरित होकर राजा सोमकान्त ने प्रसन्न चित्त से अत्यन्त विख्यात भृगुतीर्थ में स्नानकर संकल्प किया कि ‘जो गणेशजी का पुराण है, उसे मैं आज से प्रारम्भकर प्रतिदिन सुनूँगा ।’ तब मात्र संकल्प करने से ही राजा रोगरहित हो गया ॥ २२-२३ ॥ भृगुजी की कृपा से वह रक्तस्राव, कृमियों एवं घावों से रहित हो गया था। तब उस विस्मित और हर्षित राजा को भृगुजी लिवाकर ले गये और स्वयं अपने आसन पर बैठकर उसे भी आसन प्रदान किया। तब उस दिव्य कान्तिवाले नृपश्रेष्ठ [ सोमकान्त ] – ने उस आसन पर बैठने के बाद कहा — ॥ २४-२५ ॥

राजा ने कहा — आपकी कृपा से और [इस पुराण के श्रवण]-के संकल्पमात्र से मेरी सारी बलीयसी व्यथा चली गयी । [ अब आप ] मुझसे गजानन (गणेशजी ) – के इस आश्चर्यमय सम्पूर्ण पुराण को कहिये ॥ २६ ॥

भृगुजी बोले — मैं उस पुराण (गणेशपुराण)-को कहता हूँ, सावधान होकर सुनो! जिसका अनन्त पुण्यों का समूह होता है, उसी पुरुष की बुद्धि में इसे श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा पापियों की नहीं होती। जिसके कान में पड़नेमात्र से सात जन्मों में किये गये लघु, शुष्क, आर्द्र और स्थूल पाप तथा महापाप भी अविनाशी, अप्रमेय, निर्गुण, निराकार, मन और वाणी से परे, केवल आनन्दरूप गणेशजी की कृपा से उसी क्षण से विलीन होने लगते हैं ॥ २७–३० ॥ जिसके स्वरूप को ब्रह्मा, ईशान (शिव) आदि देवता भी नहीं जानते। जिसकी महिमा का वर्णन करने में विशिष्ट विद्वान् होते हुए भी सहस्र मुखवाले शेषजी भी सक्षम नहीं हैं; हे राजश्रेष्ठ ! उनके सुन्दर पुण्यप्रद पुराण (गणेशपुराण) – को अतीन्द्रिय ज्ञानसम्पन्न और अमित तेजस्वी वेदव्यासजी से मैंने पूर्वकाल में जैसा सुना था, [वैसा ही तुम्हें सुनाऊँगा ।] यज्ञ-विध्वंस से दुखी दक्ष को मुद्गलजी ने इसे सुनाया था ॥ ३१–३३ ॥

हे राजन्! सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाले गणेशजी में जिसकी दृढ़ भक्ति हो, उसे ही इस पुराण को नित्य सुनाना चाहिये, उससे इतर व्यक्ति को अर्थात् भक्तिहीन को इसे नहीं सुनाना चाहिये ॥ ३४ ॥ यदि सभी लोग विघ्नराज गणेशजी की सेवा करते, तो विघ्न-समूह सुखपूर्वक कहाँ विचरण कर पाते ! और अनेक प्रकार के विरहजनित दुःखों का अनुभव कौन करता ? ॥ ३५१/२

पूर्वकाल में भूत-भविष्य और वर्तमान को जानने वाले व्यासजी ने वेदों के अर्थज्ञान से रहित, वेदाध्ययन से वर्जित, वर्ण और आश्रमसम्बन्धी आचरणों से शून्य, जातियों का संकर करने वाले, कुटिल और पापपूर्ण आचरण करने वाले लोग कलियुग में होंगे — ऐसा विचारकर इस पुराण की रचना की। धर्म की रक्षा के लिये उन्होंने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की ॥ ३६-३८ ॥ उन्होंने उतने ही उपपुराणों की भी रचना की, जिससे लोगों को वेदार्थ का बोध हुआ । उससे ही उन लोगों को गणेशजी के तात्त्विक स्वरूप का बोध हुआ ॥ ३९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘राजोपदेशकथन’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

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