श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-08
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
आठवाँ अध्याय
राजा सोमकान्त द्वारा पूर्वजन्म में किये गये पापों तथा वृद्धावस्था में गणेश मन्दिर के जीर्णोद्धार का वर्णन
अथः अष्टमौऽध्यायः
भृगोर्हुङ्कारेण नानाशङ्कानां निवारणम्

भृगुजी बोले — उस ब्राह्मण (गुणवर्धन) – ने इस प्रकार बार-बार करुणा से युक्त एवं अवसादपूर्ण वचन कहे, परंतु उन्हें सुनकर भी तुम्हारा हृदय नहीं पसीजा ॥ १ ॥ सचमुच, ब्रह्मा ने वज्र के सारभाग से ही तुम्हारा निर्माण किया था । बहुत-से जन्तुओं और हजारों मनुष्यों की हत्या से तुम्हारे मन ने कृतघ्न की भाँति अति निष्ठुरता प्राप्त कर ली थी। तदनन्तर (ब्राह्मण की बात सुनकर ) तुमने निष्ठुर यमराज की भाँति उससे कहा — ॥ २-३ ॥

चोर [ जो इस जन्म में राजा सोमकान्त था ] बोला — रे ब्राह्मण ! बधिर के सम्मुख पाण्डित्य की बातें और अधोमुख घड़े में जल भरने जैसा प्रयास तुम अपने इन वाक्यसमूहों द्वारा मुझपर व्यर्थ में क्यों कर रहे हो ? कहाँ मेरी मूढ़ बुद्धि और कहाँ तुम्हारा यह [ज्ञानपूर्ण ] उपदेश ! जैसे मदिरापान किये हुए के सम्मुख तत्त्व- चिन्तन व्यर्थ है, वैसे ही तुम्हारी ये बातें मुझे रुचिकर नहीं लग रही हैं। जिसकी धन में आसक्ति है, उसके लिये पिता और भाई का कोई विचार नहीं होता, जैसे कि कामातुर को भय और लज्जा नहीं होती ॥ ४-६ ॥ क्या तुमने कौए को शुद्धि का विचार करते हुए, जुआ खेलने वाले को सत्य बोलते हुए, नपुंसक को धैर्य रखते हुए, स्त्रियों में निष्कामता और सर्पों में क्षमा के भाव को देखा है ? ॥ ७ ॥ विधाता ने दैवयोग से तुम्हें मुझ आजीविका रहित के पास भेज दिया है, मैं तुम्हें कदापि नहीं छोड़ सकता ॥ ८ ॥

भृगुजी बोले — ऐसा कहकर तुमने अपने दाहिने हाथ में तीक्ष्ण धारवाला खड्ग लेकर उस (ब्राह्मण) -का सिर उसी प्रकार से काट दिया, जिस प्रकार बिलाव मूषक का ॥ ९ ॥ इस प्रकार तुम्हारे द्वारा की गयी ब्रह्महत्याओं की गणना करना सम्भव नहीं है, उसमें भी विशेष रूप से स्त्रियों, बालकों, वृद्धजनों और जीव-जन्तुओं की हत्याओं की गणना नहीं हो सकती [ और गणना करनी भी नहीं चाहिये]; क्योंकि दूसरे के पापों की गणना करने वाला भी उसमें विशेष रूप से भागीदार हो जाता है ॥ १०१/२

हे कामन्द! तदनन्तर बहुत समय बीतने पर तुम्हारी वृद्धावस्था आ गयी। तुम्हें कफ, अवसाद, पसीना हिचकी और कँपकँपी होने लगी। तुम्हें बैठने पर तो नींद आ जाती, परंतु लेटने पर वह नहीं आती ॥ ११-१२ ॥ तुम्हारे पुत्र, सेवक-सेविकाएँ, मित्रगण, पुत्रियाँ और दौहित्र — सभी तुम्हारा अनादर करते थे ॥ १३ ॥ वहाँ तुम्हारे पास एक विश्वसनीय ब्राह्मण था, जो गोपनीय ढंग से तुम्हारे कार्य करता था, वह तुम्हारा देखा-समझा था तथा घर में बेरोकटोक आने-जाने में समर्थ था, उसे तुमने सभी वनवासी मुनियों को बुला लाने के लिये भेजा, तब तुम्हारे भय से और उस ब्राह्मण वचन का आदर करते हुए वे सब तुम्हारे पास आये ॥ १४-१५ ॥ तब तुमने उन [मुनियों ] -को प्रणाम करके कहा- ‘[आप लोग ] मुझसे दान ग्रहण करें।’ तब उन लोगों ने ‘कहा — ‘हम तुझ पतित से दान नहीं ग्रहण करेंगे’ ॥ १६ ॥ पापी व्यक्ति का यज्ञ कराने, उसे वेदाध्ययन कराने, उससे विवाहादि सम्बन्ध रखने, बातचीत करने, उसके साथ एक वाहन पर बैठने और साथ भोजन करने से उसका पाप दूसरे में भी संचरित हो जाता है — ऐसा तुमसे कहकर वे लोग अपने-अपने आश्रमों को चले गये और वहाँ जाकर उन सबने पावमानी ऋचा का जप करते हुए सचैल (वस्त्रसहित) – स्नान किया ॥ १७-१८ ॥

हे कामन्द (राजा सोमकान्त के पूर्वजन्म का नाम ) ! तब रोग-पीड़ित होने, स्वजनों द्वारा त्याग दिये जाने और ब्राह्मणों द्वारा भी बहिष्कृत कर दिये जाने से तुम्हारे मन में अत्यधिक अनुताप (पापकर्म के बाद पछतावा) उत्पन्न हुआ ॥ १९ ॥ स्वर्ण-रजत एवं रत्नादि से समन्वित अपनी विपुल सम्पत्ति देखकर तुम्हारी बुद्धि में किसी देवालय के जीर्णोद्धार सम्बन्धी विचार प्रस्फुटित हुआ ॥ २० ॥

तब ब्राह्मणों ने तुमसे कहा कि वन में एक छोटा- सा टूटा-फूटा देवमन्दिर है, उसमें गणेशजी की श्रेष्ठ, अनादि और मंगलमयी मूर्ति स्थित है ॥ २१ ॥

तदनन्तर तुमने अत्यधिक विस्तार और ऊँचाईवाले, चार तोरणों से युक्त चार द्वार वाले, अत्यन्त सुन्दर चार शिखरों से शोभायमान, अनेक स्तम्भों और अनेक वेदियों से समन्वित, मोती-मूँगा-रत्नों आदि से जड़ित सुन्दर आँगन वाले, अनेक प्रकार के पुष्पों के वृक्षों और अनेक प्रकार के फलों के वृक्षों से समन्वित, चारों दिशाओं में निर्मल जल से पूर्ण वापियों से सुशोभित मन्दिर का निर्माण करवाया; जिसमें तुम्हारा [अधिकांश ] धन व्यय हो गया और कुछ धन स्त्री, पुत्रों, मित्रों और बान्धवों द्वारा हरण कर लिया गया ॥ २२–२५ ॥

तदनन्तर थोड़े ही समय बाद तुम पंचतत्त्वों में विलीन हो गये। यमराज के दूतों ने तुम्हें बाँधकर कोड़ों का प्रहार करते हुए बहुत ताड़ित किया ॥ २६ ॥ तुम्हारा सारा शरीर काँटों से बिंध गया, तुम्हें पत्थर पर पटका गया और मवाद तथा रक्त के कीचड़वाले भयंकर नरक में तुम्हें डुबोया गया ॥ २७ ॥ इस प्रकार तुम उन दूतों द्वारा चित्रगुप्त और यमराज के पास ले जाये गये। तब यमराज ने पूछा — पुण्य और पाप में तुम पहले किसका भोग करोगे ? ॥ २८ ॥ तब तुमने कहा — ‘हे सूर्यपुत्र ! मैं पहले पुण्यों का भोग करूँगा ।’ तब तुम्हें सौराष्ट्रदेश में राजा बनाया गया ॥ २९ ॥

इस प्रकार शरणागत के प्रति करुणाभाव से तपोबल का आश्रय लेकर मैंने पापों के खानरूप तुम्हारे पूर्वजन्म का वर्णन कर दिया ॥ ३० ॥ [जीर्ण] मन्दिर को कान्तिमान् बना देने के कारण तुम सोमकान्त (चन्द्रतुल्य कान्तिवाले और ) राजा हुए तथा अपनी अतीव कान्तिमती पत्नी के साथ चन्द्रिका से समन्वित चन्द्रमा की भाँति सुशोभित हुए ॥ ३१ ॥

सूतजी बोले — भृगुजी द्वारा [पूर्वजन्म का] वर्णन सुनकर वह अधम राजा सोमकान्त उनके वचनों पर सन्देह करता हुआ पत्थर की भाँति निष्क्रिय अर्थात् मौन हो गया ॥ ३२ ॥ जब उसे वेद-शास्त्र के तात्त्विक विद्वान्, भूत- भविष्य और वर्तमान को जानने वाले तपस्वी भृगु के वाक्यों में सन्देह हुआ तो उसके शरीर से अनेक प्रकार के रंगों और आकृतियों वाले बहुत-से पक्षी क्षणमात्र में निकलने लगे और वे सब उस राजा को खाने लगे ॥ ३३-३४ ॥ [वे पक्षी] उड़-उड़कर अपनी दृढ़ चोंच के अग्रभाग से उस राजा को डँसने अर्थात् चोंचों के प्रहार से पीड़ित करने लगे और मुनि के ही समक्ष उसके मांस को काट-काटकर खाने लगे ॥ ३५ ॥ तब अत्यन्त दुःखित होकर वह पुनः उनकी शरण में गया और ज्ञान एवं तपस्या के निधिरूप भृगुजी से दीन वाणी में बोला — ॥ ३६ ॥

राजा ने कहा — समस्त प्राणियों को अभय प्रदान करने वाले हे मुने! आपके वन (आश्रम) – में जन्मजात वैरियों को भी परस्पर भय नहीं है, फिर आपके समक्ष ये [पक्षी] मुझ मरे हुए को क्यों मार रहे हैं ? मैं दीन हूँ, कुष्ठरोग से ग्रस्त हूँ, शरणागत हूँ और आपके चरणों में पड़ा हूँ, आप इस समय मुझे इनसे बचाइये ॥ ३७-३८ ॥

सूतजी बोले — राजा के द्वारा ऐसा कहे जाने पर दीनवत्सल भृगु ने उससे कहा — ॥ ३८१/२

भृगुजी बोले — हे राजन् ! मेरे वाक्यों पर संशय करने के कारण तुम्हें ऐसा अनुभव हुआ है। मैं इसका प्रतिकार बताता हूँ, तुम क्षणभर में स्वस्थ हो जाओगे । मेरे हुंकारमात्र से ये पक्षी चले जायँगे ॥ ३९-४० ॥

सूतजी बोले — तब द्विज [ श्रेष्ठ] भृगु के हुंकार को सुनकर सभी पक्षी अन्तर्हित (लुप्त) हो गये तथा पत्नी और मन्त्रियोंसहित राजा भी प्रसन्न हो गये ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके अन्तर्गत उपासनाखण्डमें ‘नानापक्षिनिवारण’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

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