August 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-07 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ सातवाँ अध्याय भृगुमुनि के द्वारा राजा सोमकान्त के पूर्वजन्म का वर्णन अथः सप्तमोऽध्यायः सोमकान्त पूर्वजन्म कथनं ऋषियों ने कहा — [हे सूतजी !] तब राजा सोमकान्त ने वहाँ जाकर क्या किया और सर्वज्ञ भृगुमुनि ने उन्हें क्या उपाय बताया ? ॥ १ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! आप हम श्रोताओं के समक्ष इस कथा को कहिये; क्योंकि आपके वचनामृत का पान करके हम तृप्ति तक नहीं पहुँच रहे हैं अर्थात् तृप्त नहीं हो पा रहे हैं ॥ २ ॥ सूतजी बोले — हे महाभाग [ ऋषियो!] आपने उचित प्रश्न किया है। आप लोग तो स्वयं ही ज्ञान के समुद्र हैं। हे द्विजगण ! जो श्रोता कथा का अन्त तक श्रवण नहीं करता अथवा जो वक्ता कथा का अन्त तक वाचन नहीं करता या केवल लिखे हुए का ही वाचन करता है अथवा पुस्तक की चोरी करता है और जो शिष्य गुरु से प्रश्न नहीं करता तथा जो गुरु शिष्य के प्रश्न का उत्तर नहीं देता — वे दोनों इस लोक में गूँगे और बहरे होते देखे गये हैं । इसलिये हे श्रेष्ठ द्विजगण ! मैं [राजा] सोमकान्त की कथा कहूँगा, आप लोग सुनें — ॥ ३–५ ॥ उस रात्रि के बीत जाने और दिवसाधिपति सूर्य के उदित होने के बाद स्नान, सन्ध्या, जप, हवन आदि करके उन भृगुश्रेष्ठ ने पत्नी और मन्त्रियोंसहित स्नान और जप कर चुके राजा सोमकान्त से उनके पूर्वजन्म की कथा कहना आरम्भ किया ॥ ६-७ ॥ भृगुजी बोले — विन्ध्यपर्वत के निकट रमणीय कोल्हारनगर में चिद्रूप – इस नाम से विख्यात एक महान् धनवान् वैश्य हुआ। उसकी सुलोचना नाम से प्रसिद्ध पत्नी अत्यन्त सौभाग्यवती, सुशीला, दानी, पतिवाक्यपरायणा (पति की आज्ञा मानने वाली) और सती थी । हे नृपश्रेष्ठ ! पूर्वजन्म में तुम उसी के पुत्र होकर उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणों के कथनानुसार उन दोनों ने तुम्हारा ‘कामन्द’ — यह नाम रखा ॥ ८–१० ॥ माता-पिता की वृद्धावस्था में तुम्हारा जन्म हुआ था और तुम उनके एकमात्र पुत्र थे, इसलिये वे दोनों दिन-रात तुम्हें अत्यन्त स्नेह करते थे और तुम्हारा लालन- पालन करते थे ॥ ११ ॥ उन दोनों ने हिरणी -जैसे नेत्रोंवाली, सुकुमार अंगोंवाली और ‘कुटुम्बिनी’ नाम से प्रसिद्ध [कन्या के साथ ] तुम्हारा पर्याप्त धन खर्चकर, कौतुक और मांगलिक उत्सवपूर्वक विवाह किया ॥ १२ ॥ [तुम्हारी पत्नी] ब्राह्मणों, देवताओं और अतिथियों का सत्कार करने में प्रेम रखने वाली और तुममें ही अनुरक्त चित्तवाली थी । समस्त स्त्रियों में रत्नस्वरूपा वह अत्यन्त सुन्दरी थी ॥ १३ ॥ पाँच बाण धारण करने वाले कामदेव की पत्नी रति की भाँति सुन्दर उस सात पुत्रों और पाँच पुत्रियों वाली कुटुम्बिनी ने अपने नाम को सार्थक किया था ॥ १४ ॥ तदनन्तर बहुत समय बाद तुम्हारे पिता पंचतत्त्वों में विलीन हो गये और तुम्हारी साध्वी माता भी उन्हीं के साथ दग्ध होकर स्वर्ग को चली गयीं ॥ १५ ॥ तब तुमने अपनी मित्रमण्डली के साथ [मौजमस्ती में ] बहुत-सा धन नष्ट कर दिया । [ उनके द्वारा ] कुछ धन उठा ले जाया गया, कुछ नष्ट कर दिया गया और कुछ खाने-पीने में समाप्त हो गया — इस प्रकार सम्पूर्ण धन विनाश को प्राप्त हो गया ॥ १६ ॥ चिन्तित होकर तुम्हारी धर्मपत्नी ने तुम्हें बहुत रोका, किंतु तुमने उसकी बात नहीं मानी और घर भी बेच दिया ॥ १७ ॥ कुल के लिये कण्टक के समान तुम्हें छोड़कर वह अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिये तुम्हारी आज्ञा लेकर बच्चों के साथ पिता के घर चली गयी ॥ १८ ॥ तदनन्तर तुम दुराचारी हो गये। मदिरापान करके उन्मत्त हो जाते और पागल हाथी की भाँति नगर में अत्याचार करते ॥ १९ ॥ तुम दूसरे का द्रव्य हरण करते, परनारियों से व्यभिचार करते, गाँवों में चोरी करते और लोगों को सन्ताप दिया करते थे। तुम द्यूतक्रीडा में निपुण, मूर्तिमान् पापसमूह, हिंसाप्रिय तथा बलहीन होते हुए भी अपने को शूरवीर मानने वाले थे ॥ २० ॥ जो-जो लोग तुम्हारे सुख के साथी थे और तुम्हारे द्वारा तृप्त किये गये थे, उनसे बहुत-सा धन लेकर तुम खा गये। तुम्हारे पिता ने धरोहर के रूप में अपने मित्रों के यहाँ जो कुछ रखा था, उसे भी लेकर तुम खा गये ॥ २१ ॥ तुमने अनेक बार झूठी कसमें खायीं, अनेक बार स्त्रियों से झूठ बोले और झूठे प्रमाण दिये। इसलिये सभी लोग तुमसे वैसे ही भयभीत रहते थे, जैसे घर में घुसे हुए अत्यन्त विषैले साँप से ॥ २२ ॥ इस प्रकार जब तुम लोगों के लिये पायस में पड़े हुए [कँटीले] गोखुर की भाँति हो गये, तब इसी कारण से लोगों ने राजा की अनुमति लेकर तुम्हें नगर से निकलवा दिया ॥ २३ ॥ वन में रहते हुए तुम नित्य बहुत-से प्राणियों की हत्या करते थे । तुम स्त्रियों, बालकों और वृद्धों की हत्या करते थे और किसी श्रेष्ठ पुरुष को देखकर वैसे ही पलायन कर जाते थे, जैसे सिंह को देखकर भेड़िया या मृग भाग जाता है ॥ २४ ॥ तुमने मछलियों, बगुलों, सारस, मुर्गों, भेड़ियों, हिरनों, बन्दरों, कोयल, गैंडों, खरगोशों और घड़ियालों को निष्प्रयोजन मारकर और उन्हें खाकर पापपूर्ण आचरण से ही अपने शरीर का पोषण किया ॥ २५ ॥ तुमने अनेक स्थानों में रहने वाले दुर्धर्ष चोरों को अपने साथ मिलाकर और सिंहों, व्याघ्रों एवं सियारों को पर्वत-कन्दराओं से निकालकर लकड़ी, मिट्टी और पत्थरों से एक उत्तम गृह का निर्माण किया; जो एक कोस विस्तारवाला और अनेक प्रकार के चमत्कारों से युक्त था ॥ २६-२७ ॥ तुम्हारी पत्नी के पिता ने जनता और राजा के भय से उसे बालकों के साथ तुम्हें सौंप दिया और वह तुम्हारे घर आ गयी ॥ २८ ॥ अनेक प्रकार के वस्त्रों एवं अलंकारों से सुशोभित तुम्हारी पत्नी देवांगना की भाँति शोभा पाती थी, तुम्हारे बालक भी तेजस्वी थे। वहाँ तुम चोरों के साथ रहते तथा रास्ते में चलने वाले गरीब लोगों की हत्या करके घर भाग आते। चोरों, बालकों और स्त्री के साथ तुम राजा की भाँति प्रतीत होते थे। किसी समय गुणवर्धन नाम से विख्यात एक विद्वान् ब्राह्मण तुम्हें मध्याह्नकाल में रास्ते में एकाकी दिखायी पड़ा ॥ २९–३१ ॥ तब तुमने उस ब्राह्मण का दाहिना हाथ पकड़कर उसे रोक लिया। तुम्हारे द्वारा पकड़कर खींचे जाने से वह तुम्हारे मन की बात जान गया और थर-थर काँपने लगा। तुम्हें अपना काल मानकर वह मूर्च्छित हो गया और जीवित रहने की इच्छा से अत्यन्त करुणापूर्ण एवं तर्कसंगत वाक्यों से तुम्हारा प्रबोधन करते हुए कहने लगा — ॥ ३२-३३ ॥ गुणवर्धन बोला — मैं ब्राह्मण हूँ, नव-विवाहिता का पति हूँ, शान्त स्वभाव वाला हूँ और निरपराध हूँ; धनवान् और सौभाग्यवान् होकर भी तुम मुझे मारने की इच्छा क्यों करते हो?॥ ३४ ॥ दुर्बुद्धिपूर्ण वासना का त्याग करके तुम अपनी बुद्धि को सद्धर्म में लगाओ। मेरी पहली पत्नी परलोक को चली गयी, तब मैंने उससे श्रेष्ठ यह दूसरी पत्नी प्राप्त की है। यह सुन्दर आचरण वाली, परम उदार, साध्वी और सभी गुणों की खान है। पितरों के ऋण से मुक्त होने, धर्म और सन्तान की वृद्धि के लिये तथा गृहस्थ धर्म के पालन की इच्छा से मैंने अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक उससे विवाह किया है। मेरे बिना उसका और उसके बिना मेरा जीवन व्यर्थ हो जायगा ॥ ३५-३७ ॥ अतः तुम मेरे रक्षक पिता हो जाओ, मैं भी तुम्हारा पुत्र हो जाऊँगा; क्योंकि शास्त्र में जीवन देनेवाले और भय से रक्षा करने वाले — दोनों को पिता कहा गया है। डाकू भी ब्राह्मण या शरण में आये हुए की रक्षा करते हैं, अतः मुझ ब्राह्मण, विद्वान् और शरणागत को तुम्हें मुक्त कर देना चाहिये, अन्यथा तुम हजारों कल्पों तक नरकों में पड़ते रहोगे ॥ ३८-३९१/२ ॥ [तुम्हारे द्वारा लाये गये धन के] स्त्री, पुत्र और सुहृज्जन सभी उपभोक्ता हैं। ये ठग लोग तुम्हारे धन से सुखी तो हैं, पर तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं होंगे, अतः यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि तुम कितने जन्मों तक इस पाप का फल भोगते रहोगे ॥ ४०-४१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘सोमकान्त के पूर्वजन्म का कथन’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Content is available only for registered users. 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