August 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-06 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ छठा अध्याय राजा सोमकान्त का भृगुमुनि के आश्रम में जाना अथः षष्टोऽध्यायः भृगो आश्रमे सोमकान्तस्य निवासः सूतजी बोले — सुधर्मा के इस प्रकार के वचन सुनकर भृगुपुत्र च्यवन ने त्वरापूर्वक अपना जल से भरा कलश उठाया और परदुःखकातर होने के कारण चुपचाप अपने घर को चले गये। तब भृगु ने विलम्बकर आने वाले पुत्र से पूछा — ॥ १-२ ॥ भृगु बोले — हे पुत्र ! तुमने ऐसी क्या अपूर्व (जो पहले न देखी हो) बात देख ली है, जो चकित-से दिखायी दे रहे हो; तुम्हें विलम्ब क्यों हो गया – यह मुझसे बताओ ॥ ३ ॥ पुत्र बोला — हे मुने ! सौराष्ट्रदेश में देवपुर नाम से विख्यात एक नगर है, वहाँ कमल के समान नेत्रवाला सोमकान्त नाम का प्रसिद्ध राजा था। उसने बहुत समय तक धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए राज्य किया, परंतु दैववश वह दुर्भाग्य को प्राप्त हो गया । हे पिता ! वह अपने पुत्र को राज्य देकर पति की आज्ञा मानने वाली अपनी पत्नी सुधर्मा और दो मन्त्रियों – सुबल और ज्ञानगम्य के साथ यहाँ आया है। गलित कुष्ठ से पीड़ित और कीड़ों से युक्त वह राजा भ्रमण करते हुए दुर्गम सरोवर तक आया है, वह ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे गौतममुनि द्वारा शापित सहस्र भग से युक्त इन्द्र हो ॥ ४-७ ॥ कहाँ सुन्दर अंगों वाली वह सुधर्मा और कहाँ उसका गलित कुष्ठ से पीड़ित पति ! इसी वृत्तान्त को उससे पूछने पर मेरा कुछ समय बीत गया था ॥ ८ ॥ उसके करुणापूर्ण वचनों से मेरा चित्त द्रवीभूत हो गया, तब मैं शीघ्र ही कलश भरकर चला आया ॥ ९ ॥ सूतजी बोले — [ इस प्रकार ] उस (सुधर्मा ) -ने जो कुछ कहा था, वह सब उसने उनसे (भृगुजी से) कह दिया । उसे सुनकर पुत्र च्यवन से भृगु ने पुनः कहा — ॥ १० ॥ भृगु बोले — हे पुत्र ! दूसरों का उपकार करने वाले लोग तो स्वयं संसार में विख्यात होते हैं । [वे] महाराज सोमकान्त धर्मनिष्ठ, पूज्य और सम्मान्य हैं, अतः उनको ले आओ। मेरी आज्ञा से तुम जाओ और उन सबको शीघ्र ले आओ, मैं उनकी आश्चर्यजनक स्थिति को देखूँगा और उन्हें भी अपना [तपोजनित कौतुक ] दिखाऊँगा ॥ ११-१२ ॥ सूतजी बोले — पिता के द्वारा इस प्रकार प्रेरित किये जाने पर सुधर्मा को देखने के लिये उत्सुक करुणानिधि च्यवन शीघ्रतापूर्वक वहाँ सरोवर के पास गये ॥ १३ ॥ उसी समय सुबल और ज्ञानगम्य नाम वाले दोनों अमात्य भी फल और कन्द का भार लिये हुए राजा समीप आ गये ॥ १४ ॥ तदनन्तर उन मुनिपुत्र च्यवन ने सुन्दर नेत्रों वाली सुधर्मा से कहा — हे सुव्रते ! मेरे पिता आप सबको अपने आश्रमपर बुला रहे हैं ॥ १५ ॥ तब उन (मुनि च्यवन ) – का इस प्रकार का वचन सुनकर दुःख से व्याकुल सुधर्मा वैसे ही सावधान हो गयी, मानो शरीर में प्राण आ गये हों ॥ १६ ॥ तब उनके वचनामृत का पान करके सुन्दर अंगोंवाली और शीलसम्पन्न राजपत्नी सुधर्मा दोनों मन्त्रियों और पति राजा सोमकान्त के साथ मुनिपुत्र को आगे करके चली। उस समय मार्ग के मध्य में उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, जैसे बृहस्पति को आगे करके शिवा (पार्वतीजी) गणेश और स्कन्दसहित शिव के साथ जा रही हों। इस प्रकार वे वेदमन्त्रों के उच्च स्वर से ध्वनित भृगुजी के आश्रम-मण्डल में पहुँचीं ॥ १७–१९ ॥ [वह आश्रम] अनेक प्रकार की पुष्पलताओं से आच्छादित और अनेक प्रकार के पक्षियों के कलरव से निनादित था। वहाँ बिलाव, बगुले, बाज, हाथी, गाय, मोर, सर्प, पक्षी, सिंह और व्याघ्र क्रीड़ा कर रहे थे । वहाँ न हवा तेज चलती थी, न ही सूर्य अधिक तपते थे और न बादल ही अधिक वर्षा करते थे, अपितु उन मुनि की इच्छानुसार ही वर्षा करते थे – ऐसे आश्रम में मुनिपुत्र को आगे करके उन सबने प्रवेश किया ॥ २०–२२ ॥ वहाँ उन्होंने व्याघ्रचर्म पर विराजमान उन सूर्यसदृश अद्भुत स्वरूपवाले तेजस्वी भृगु मुनि को देखा । तब राजा सोमकान्त, उनकी पत्नी सुधर्मा और दोनों मन्त्रियों ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा राजा ने कहा — ॥ २३ ॥ राजा बोले — हे द्विजेन्द्र ! आज मुझे ब्राह्मणों द्वारा दिये गये आशीष, मेरा धर्म और मेरी तपस्या भी सुफल हो गयी है, मैं आजन्म पवित्र हो गया हूँ और मेरे जननी – जनक का भी जीवन सुजीवन हो गया है ॥ २४ ॥ मेरे पूर्वार्जित पुण्यों के समूह से इस समय आपका दर्शन हुआ है, जिससे [अतीत तथा वर्तमान के] पापों का नाश हो गया । हे मुनीन्द्र ! इससे मेरा भविष्य भी कल्याणमय हो गया है। इस प्रकार आपका दर्शन तीनों कालों में मेरे जन्म को पवित्र बना रहा है ॥ २५ ॥ हे अमोघ दर्शनवाले मुनीन्द्र ! मैं सौराष्ट्रदेश में देवपुर [नामक नगर ]- में नीतिपूर्वक, पापों से डरते हुए और ब्राह्मणों एवं देवताओं की पूजा करते हुए राज्य करता था। अकस्मात् मेरा यह कौन-सा उग्रतर और अन्तहीन पाप उदित हो गया, जिससे कि मैं इस दुर्दशा को प्राप्त हो गया ? मैं इसका किंचित् प्रतिकार भी नहीं जानता हूँ ॥ २६-२७ ॥ मेरे द्वारा किये जाने वाले उपाय भी अपाय (अनिष्टकारक) हो जाते हैं, लेकिन आप द्वारा किया गया उपाय, उपाय ही होगा — ऐसा मुझे लगता है; क्योंकि आपके आश्रम में रहने वाले जन्मजात वैरी भी निर्वैर हो जाते हैं। मैं आपके शरणागत हूँ ॥ २८ ॥ सूतजी बोले — उन (राजा) – के इस प्रकार के वचन सुनकर सद्व्रतों का आचरण करने वाले भृगुमुनि करुणायुक्त होकर ध्यानपूर्वक अवलोकन कर राजा सोमकान्त से बोले -— ॥ २९ ॥ भृगु बोले — हे राजन् ! मैं उपाय बताता हूँ, तुम्हें चिन्ता करना उचित नहीं है। मेरे आश्रम में आने वाले प्राणी दुःख नहीं पाते हैं ॥ ३० ॥ हे नृपश्रेष्ठ! जन्मान्तर में जो तुमने पाप किया है, जिसके कारण तुम इस अवस्था को पहुँच गये हो — वह भी मैं बताऊँगा ॥ ३१ ॥ [आप] सब लोग बहुत समय से भूखे हैं, अतः भोजन करें। एक वन से दूसरे वन को जाते रहने के कारण [आप सब] बहुत अधिक थक गये हैं और आप सबके मुख कान्तिहीन हो गये हैं ॥ ३२ ॥ सूतजी बोले — ऐसा कहकर [मुनि ने] पहले उनकी उत्तम तेल से मालिश करवायी, फिर स्नान करवाया, तत्पश्चात् षड्रसों से युक्त अनेक प्रकार के व्यंजनों का भोजन करवाया ॥ ३३ ॥ थके हुए उन लोगों ने भी अमित तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ भृगु की आज्ञा पाकर सम्यक् रूप से स्नानादिपूर्वक अलंकृत होकर भोजन किया। तत्पश्चात् दुर्जय चिन्ता का त्यागकर मुनि द्वारा परिकल्पित कोमल शय्याओं पर वे सब इस प्रकार सो गये, मानो अपने राज्य में पहुँच गये हों ॥ ३४-३५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘भृगु-आश्रमगमनवर्णन ‘ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ Content is available only for registered users. 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