श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-05
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पाँचवाँ अध्याय
सुधर्मा-च्यवन-संवाद
अथः पञ्चमोऽध्यायः
सुधर्माच्यवन संवाद

सूतजी बोले — [ हेमकण्ठ ने] तत्पश्चात्‌ (राजा से विदा लेकर) माता के पास आकर स्नेह से व्याकुल बुद्धि से उससे कहा कि हे माता! मुझ निरपराध का त्याग आप कैसे कर रही हैं?॥ १ ॥

पुत्र ( हेमकण्ठ )-ने कहा —  यह पुत्र भी हमारे साथ चले’ — ऐसा आपको पिताजी से कहना चाहिये । यदि आपके अनुरोध पर वे मुझे साथ ले चलेंगे, तब मैं आप दोनों की सेवा करूँगा, मेरी बुद्धि राज्य करने में नहीं है। वह राज्य मुझे क्या सुख देगा, जो आप दोनों से रहित हो !॥ २-३ ॥

सुधर्मा ने कहा — हे महाबाहु! दुःख और शोक से युक्त राजा इस समय मेरी बात नहीं मानेंगे। इसलिये मेरी आज्ञा से तुम [नगर को] जाओ। पुत्र! स्त्रियों के लिये पति के अतिरिक्त अन्य कोई देवता मान्य नहीं होता और मैं पातिव्रत धर्म के कारण पराधीन हूँ ॥ ४-५ ॥

सूतजी बोले — ऐसा सुनकर पुत्र हेमकण्ठ ने अपने सुहृज्जनों के साथ माता को प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करके और उनकी आज्ञा प्राप्तकर नगर कों प्रस्थान किया ॥ ६ ॥ उस समय वह नगर इन्द्र के नगर अर्थात्‌ स्वर्गलोक की भाँति नागरिकों द्वारा ध्वजाओं, पताकाओं और पल्लवो से अलंकृत किया गया था और उसके मार्गो को सुगन्धित द्रव्य आदि से सींचा गया था ॥ ७ ॥ [तदनन्तर] राजा ने स्वजनों को वस्त्र और पान देकर विदा किया और अपने ऐश्वर्यसम्पन्न भवन में प्रवेश किया; उस समय उसे हर्ष और शोक दोनो था ॥ ८ ॥ [उसने] प्रजा का पुत्रवत्‌ पालन करते हुए धर्मपूर्वक राज्य किया और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की जैसी शिक्षा प्राप्त हुई थी, उसमें उसी प्रकार मन लगाया ॥ ९ ॥

ऋषियों ने कहा — [हे सूतजी!] राजा सोमकान्त कैसे और किस वन को गये? उनके सहायक कौन थे और [वहाँ जाकर] उन्होंने क्या कार्य किया ? — यह सब आप हमें विस्तारपूर्वक बतायें॥ १० ॥

सूतजी बोले — हे निष्पाप ऋषियो! सोमकान्त जिस प्रकार वन को गये और वहाँ जो कार्य किया, अब मैं उसे आप सबसे कहूँगा, उसे आदरपूर्वक सुनिये ॥ ११ ॥ [राजा ने] सुबल और ज्ञानगम्य नामक दो मन्त्रियों और धर्मपत्नी सुधर्मा के साथ दुर्गम वन में प्रवेश किया ॥ १२ ॥ आगे-आगे मन्त्री, मध्य में राजा और उनके पीछे उनकी धर्मपत्नी सुधर्मा वैसे ही चल रही थी, जैसे राम के पीछे सीता [वन को गयी थीं] ॥ १३ ॥ वे चारों समान मनवाले, सुख-दुःख में समान भाव रखते हुए एक बार ही भोजन करते, वन में ही निवास करते और एक वन से दूसरे वन को जाते थे ॥ १४ ॥ ऊँचे-नीचे रास्तों पर चलने के कारण भूख-प्यास और थकान से अत्यन्त पीड़ित होने पर छाया का आश्रय लेकर वे कभी बैठ जाते थे ॥ १५ ॥

पुनः दूसरे वन में जाने पर उन्होंने एक विशाल सरोवर देखा, जिसमें कछुओं सहित हाथी के समान [विशाल] मगरमच्छ दिखायी दे रहे थे ॥ १६ ॥ वह चारों ओर से ताल (ताड), तमाल (एक काली छाल वाला वृक्ष), सरल (चीड), प्रियाल (अंगूरों की बेल), मंगलकारी बकुल (मौलसिरी), रसाल (आम), पनस (कटहल), जम्बू (जामुन), निम्ब (नीम), अश्वत्थ (पीपल), वट (बरगद) आदि के वृक्षों और अनेक प्रकार के लताजालों से घिरा था, [जिसके कारण] वहाँ ऐसा घना अन्धकार व्याप्त था, जैसा कि पर्वत की गुफा में रहता है ॥ १७-१८ ॥ वहाँ की वायु कमल और कदम्ब के पुष्पों की सुगन्ध से सुगन्धित और स्पर्श में सुखद थी, वहाँ से मुनिजन फूल और फल ले जाते थे ॥ १९ ॥ वहाँ हंस, बगुले, बाज, तोते, कौवे, कोयल, मैना और चकवा पक्षी अनेक प्रकार के शब्द कर रहे थे ॥ २० ॥

हे श्रेष्ठ द्विजगण! वहाँ अनेक प्रकार की लताओं और पुष्पों के कुंजों का आश्रय लेने वालों को सूर्य और चन्द्रमा की किरणें भी स्पर्श नहीं कर पाती थीं। वहाँ भूख-प्यास और मृत्यु का भय वैसे ही नहीं था, जैसे पुण्यात्माओं को स्वर्ग में नहीं रहता ॥ २१ ॥ वहाँ जाकर उन सबने श्रमापहारी शीतल जल का पान किया और स्नान एवं नित्य क्रिया करके फलाहार किया। तदनन्तर राजा कोमल बालुकामय तट-प्रदेश में सो गये और उनकी धर्मपत्नी सुधर्मा उनके पैर दबाने लगीं ॥ २२-२३ ॥ राजा का अभिप्राय समझकर दोनों मन्त्री कन्द, मूल, फल और कमल-नाल लाने चले गये ॥ २४ ॥ तब वहाँ सुधर्मा ने एक अद्भुत बालक को देखा, जो अपनी कान्ति से देदीप्यमान हो रहा था। [ उस समय सुधर्मा ने] उस उत्कृष्ट रूपवाले बालक को [देख करके] यही माना कि कामदेव ही इस बालक के रूप में उत्पन्न हुए हैं ॥ २५ ॥ उस बालक को देखकर ही वह सुधर्मा हर्षित हो गयी और उसने उसे [अपना] हितकारी माना। क्षुब्ध या प्रसन्न हृदय स्वयं ही समीक्षा करके बता देता है कि कौन अपकारी है और कौन उपकारी ॥ २६ ॥

[तब सुधमनि] उस बालक से पूछा कि बताओ तुम कौन हो? कहाँ जा रहे हो? किसके पुत्र हो और तुम्हारी माता कौन है? अपने शब्दों की अमृतधारा से मित्र की भाँति मेरे दोनों कानों को शीघ्र सन्तुष्ट करो ॥ २७ ॥

सूतजी बोले — ऐसा पूछने पर उस बालक ने राजपुत्री (सुधर्मा) -को अमृतमयी वाणी में उत्तर देते हुए कहा — हे भामिनि! महर्षि भृगु मेरे पिता हैं और पुलोमा मेरी माता। जल लेने की इच्छा से मैं अपने घर से यहाँ आया हूँ ॥ २८ ॥ हे शुभे! मेरा नाम च्यवन है और मैं पिता का आज्ञाकारी हूँ; तुम कौन हो और ये तुम्हारे कौन हैं? तथा इस वन में क्यों आये हैं ?॥ २९ ॥ इनके अंगों से वर्षाकाल के पर्वत की भाँति स्राव क्यों हो रहा है? किस कर्म के कारण इनके शरीर से इतनी दुर्गन्ध आ रही है-यह बतलाओ ॥ ३० ॥ तुम स्वयं अत्यन्त सुन्दरी, सुकुमारी और सुन्दर नेत्रों वाली होकर भी कीड़ों से भरे शरीर वाले इनकी सेवा कैसे करती हो ?॥ ३१ ॥ तुम सुन्दर और प्रसन्न मुखवाली तथा समस्त अंगों से सुन्दर एवं शोभनीय हो; क्या तुम्हारे पिता, सुहृज्जनों, भाइयों और [पुरोहित आदि] द्विजों को विवाह से पूर्व यह ज्ञात नहीँ था कि वर कुष्ठ रोग से पीड़ित और कृमियों से आक्रान्त है? आपने कैसे इनका वरण कर लिया और इस दुर्गम वन को चली आयीं ?॥ ३२-३३ ॥

सूतजी बोले — उस बुद्धिमान्‌ मुनिपुत्र के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर शोक और हर्ष से युक्त उस सुधर्मा ने सम्पूर्ण वृत्तान्त उससे कह सुनाया ॥ ३४ ॥

सुधर्मा ने कहा — सौराष्ट्रदेश में देवपुर नाम से विख्यात एक विशाल नगर है, वहाँ ये मेरे पति सोमकान्त राज्य करते थे। ये अत्यन्त सम्मान्य, दानशील, शूरवीर, दृढ़ पराक्रमी, असंख्य सेना से सम्पन्न, शत्रुओं के राष्ट्र का ध्वंस करने वाले, सौन्दर्यशाली, यज्ञशील, ऐश्वर्यसम्मन्न, मित्रों को आनन्द देने वाले, सभी कार्यों के विवेचक और नीतिशास्त्र के पण्डित थे ॥ ३५-३७ ॥ हे दविजश्रेष्ठ! राजा ने दीर्घकाल तक अपने राज्य का भोग किया, परंतु पूर्वजन्मों के कर्म-विपाक के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुए हैं, और पुत्र को राज्य देकर मन्त्रिद्य के साथ इस वन को आये हैं। मैं भी इनके पीछे- पीछे चलती हुई सुबल और ज्ञानगम्य नामक मन्त्रियों के साथ यहाँ तक चली आयी। राजा की आज्ञा लेकर वे दोनों फल लाने वन में गये हैं ॥ ३८-४० ॥ यहाँ राक्षस, प्रेत, भूत और अनेक प्रकार के पशु- पक्षी हमें भयभीत करते रहते हैं, पर न जाने क्यों वे हमें खाते नहीं हैं ?॥ ४१ ॥ न जाने वे आगे दुःख भोगने के लिये ही हमें बनाये रखेंगे, मैं अपने पापकर्मजनित दुःखों का अन्त नहीं देख पा रही हूँ ॥ ४२ ॥ द्विजों से घिरे इन राजा की [पूर्वकाल में] कडवे, तीखे, खट्टे, नमकीन, मीठे, स्निग्ध (घृतपक्व) व्यंजनों में वैसी रुचि नहीं होती थी, जैसी कि इस समय कन्द- मूल और कसैले-खट्टे फलों में होती है ॥ ४३१/२

दरिद्रों का आहार बहुत अधिक होता है और उनके द्वारा खाया हुआ भोजन पच भी जाता है, जबकि श्रीसम्पन्न (ऐश्वर्यवान्‌) लोगों की शक्ति उतना भोजन करने और उसे पचाने की नहीं होती ॥ ४४१/२

जो [राजा] कोमल, दिव्य और मनोरम शय्या पर शयन करता था; समय विपरीत होने पर देखिये कि वह आज यहाँ-वहाँ कहीं भी सो जाता है ॥ ४५१/२

जिसके चारों तरफ दिशाएँ अनेक प्रकार के मांगलिक सुगन्धित द्रव्यों की सुगन्ध से व्याप्त रहती थीं, वही आज मवाद, रक्त और सडे मांस की दुर्गन्ध से व्याप्त है ॥ ४६१/२

जो विद्वानों से घिरा हुआ आनन्दसिन्धु में निमग्न रहता था, आज वही दुःखदायी कीड़ों से घिरा हुआ है ॥ ४७१/२

हे भृगुनन्दन! मेरी समझ में नहीं आ रहा कि हम इस दुःखसागर को कैसे पार करेंगे इस अगाध [दुःख]- सागर में डूबती हुई [हम लोगों की] नौका के लिये आप जहाज बन जाइये ॥ ४८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में “सुधर्मा-च्यवन-संवादवर्णन” नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

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