August 14, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-04 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चौथा अध्याय सोमकान्त का वनगमन अथः चतुर्थोऽध्यायः सोमकान्ततपोवनगमनं सूतजी बोले — राज्याभिषेक सम्पन्न होने पर उन राजा सोमकान्त ने ब्राह्मणों का पूजन किया और उन्हें अंगभूत दक्षिणा के साथ दस सहस्र गौएँ तथा मणि, मोती और मूँगे प्रदान किये। उन्होंने उन सबको हाथी, गौएँ, घोड़े, धन, रेशमी परिधान देकर सन्तुष्ट किया ॥ ११/२ ॥ उन्होंने राजाओं, राजपत्नियों, उनके सेवकों, ग्रामप्रमुखों तथा गुणीजनों को यथायोग्य अनेक देशों के सुवर्णजटित वस्त्रों, कश्मीर देश में निर्मित अनेक रंगों के श्रेष्ठ वस्त्रों को प्रदान किया। साथ ही मन्त्रियों को अन्य अर्थात् पूर्व में दिये गये ग्रामों के अतिरिक्त अनेक ग्राम और बहुत-सा धन दिया ॥ २-४ ॥ तदनन्तर पूर्वजन्मार्जित दोषों के कारण दुःख और शोक से युक्त राजा सोमकान्त ने अत्यन्त मलिन अपवित्र अवस्था में वन के लिये प्रस्थान किया ॥ ५ ॥ उनके जाते ही लोगों में महान् हाहाकार मच गया। सब लोग अपना-अपना कार्य छोड़कर राजा के पीछे चल दिये ॥ ६ ॥ मन्त्रिगण, राजाकी पत्नी सुधर्मा, पुत्र हेमकण्ठ तथा सुहृद्गण भी उठते, गिरते, लुढ़कते, दौड़ते और रोते हुए उनके पीछे गये ॥ ७ ॥ मन्त्रियों और नगर के लोगों ने भी दुखी होकर राजाको रोका। दो गव्यूति 1 (चार कोस) जाने के बाद श्रमित होकर राजा रुक गये ॥ ८ ॥ [वहाँ] उन्होंने अनेक वृक्षों से घिरी हुई और शीतल जल से सम्पन्न वापी (बावड़ी ) – को देखकर सभी नागरिकों, मन्त्रियों और स्वजनों से कहा — ॥ ९ ॥ हे सज्जनो! दीर्घकाल तक राज्य करते हुए मैंने जो अपराध किये हों, उनके लिये आप लोग [मुझे ] क्षमा करें; मैं आप लोगों को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ ॥ १० ॥ मैं आप सबसे निवेदन करता हूँ कि दैववश मुझे यह जो [रोग] प्राप्त हो गया है, इससे मेरे प्रति आप लोग अपने स्नेह को कम न करियेगा और मेरे पुत्र पर अपनी कृपा बनाये रखियेगा ॥ ११ ॥ आप सभी आये हुए लोग स्त्रियों और वृद्धोंसहित नगर को वापस जायँ और मेरे पुत्र द्वारा पालित होते हुए दुःखरहित होकर निवास करें ॥ १२ ॥ मैं प्रसन्न चित्त से वन जाऊँ, इसके लिये आप सब लोग अनुज्ञा प्रदान करें [ और घर लौट जायँ ] । आप लोगों के जाने के बाद ही मेरा मन शान्त हो सकेगा ॥ १३ ॥ [अतः] आप लोग मेरे ऊपर यह महान् उपकार करने की कृपा करें; मैं दुखी हूँ, मरने की इच्छा करता हूँ, पर निष्ठुर वचन बोलने का मुझमें उत्साह नहीं है ॥ १४ ॥ मेरा यह जन्म-जन्मान्तर में अर्जित किया गया महान् पाप ही है, जिसके कारण मुझे राज्य के हितैषी प्रजाजनों से वियोग हो रहा है; परंतु मैं क्या करूँ ? मैं तो गलित कुष्ठ से पीड़ित हूँ। सभीको अपने किये सुकृत (पुण्यकर्मों) और दुष्कृत (पापकर्मों) – का फल भोगना ही पड़ता है ॥ १५-१६ ॥ सूतजी बोले — राजा की इस प्रकार की बात सुनकर उनके सुहृज्जन मूर्च्छित हो गये, कुछ लोग अत्यन्त दुखी होकर अपने हाथों से अपना सिर पीटने लगे। उनमें से जो कुछ विद्वान् लोग थे, वे पूर्वकाल में उत्पन्न हुए राजाओं के चरितों की चर्चाकर राजा को और परस्पर [एक-दूसरे को भी] सान्त्वना देने लगे ॥ १७-१८ ॥ उस स्थिति को देखकर कुछ अन्य लोग अनिर्वचनीय अवस्था को उसी प्रकार पहुँच गये, जैसे आत्मस्वरूपका ज्ञान होने पर ज्ञानवृत्ति वाले योगी ॥ १९ ॥ कुछ धैर्यशाली लोगों ने अपने दुःख का नियमन करके वन जाने को उद्यत उन दुखी राजा सोमकान्त से इस प्रकार कहा — ॥ २० ॥ लोगों ने कहा — हे प्रजावत्सल ! जैसे अग्नि उष्णता का और जल शीतलता का त्याग नहीं करता, समुद्र अपनी मर्यादा का और सूर्य अपने प्रकाशकत्व गुण का त्याग नहीं करता; वैसे ही आपको हमारा पालन-पोषण करके फिर त्यागकर जाना उचित नहीं है । हम आपके बिना नगर को वापस कैसे जा सकते हैं ? ॥ २१-२२ ॥ जैसे नक्षत्रों से भरा होने पर भी बिना चन्द्रमा के आकाश सुशोभित नहीं होता, वैसे ही शत्रुओं का दमन करने वाले हे राजन्! आपके बिना यह नगर शोभा नहीं देता ॥ २३ ॥ हे स्वामी! हम सब भी आपके साथ दो-तीन तीर्थों की यात्रा पर चलेंगे; [हमें विश्वास है कि ] तीर्थ-सेवन से आपका रूप कान्तिमान् हो जायगा ॥ २४ ॥ तदनन्तर हम लोग आपके साथ महान् हर्षपूर्वक मंगलवाद्यों की ध्वनि के साथ बन्दीजनों को आगे करके ध्वज-पताकाओं से सुसज्जित नगर में आयेंगे ॥ २५ ॥ सूतजी बोले — इस प्रकार उनके वचनों को सुनकर क्रोध और दुःख से परिपूर्ण राजा ने उन सबको नमस्कार करके ‘ऐसा न करो, ऐसा न करो’ बार-बार कहा ॥ २६ ॥ तदनन्तर स्नेह और करुणापूर्ण भावों से युक्त हेमकण्ठ ने मन्त्रियों के साथ पुत्रवत्सल राजा से विनयपूर्वक निवेदन किया — ॥ २७ ॥ पुत्र (हेमकण्ठ)-ने कहा — मैं आपके बिना [नगर में] जाने, राज्य करने और जीवित रहने में भी उत्साह नहीं रखता हूँ। मैंने इससे पूर्व कभी आपका वियोग नहीं देखा है, तो फिर उसे कैसे सहन करूँ? ॥ २८ ॥ राजा (सोमकान्त)- ने कहा — इसीलिये मैंने पहले ही तुम्हें उत्तम नीतिशास्त्र के सहित धर्मशास्त्र का उपदेश किया है। तुम्हें उस मंगलमय उपदेश को व्यर्थ नहीं करना चाहिये ॥ २९ ॥ ऐसा सुना जाता है कि पूर्वकाल में नीतिज्ञ और परम बुद्धिमान् जमदग्निनन्दन परशुराम ने पिता के कहने पर माता को मार डाला था ॥ ३० ॥ [[पिता की आज्ञा से ही] श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ राज्य छोड़कर वन चले गये और [ पितासदृश ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा से ही] बिना कारण पूछे लक्ष्मण सीता को वन में छोड़ आये थे ॥ ३१ ॥ इसलिये हे हेमकण्ठ! तुम तीनों मन्त्रियों के साथ शीघ्र ही नगर को जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करते हुए मेरे द्वारा प्रदान किये गये राज्य का शासन करो ॥ ३२ ॥ जैसे परमात्मतत्त्व के विद्वान् व्यक्ति का चित्त उसके लौकिक कार्यों में लगे रहने पर भी परमात्मा में ही संलग्न रहता है, जैसे सामान्य जनों का चित्त अपने द्वारा रखे गये या गाड़े गये धन में ही स्थित रहता है, वैसे ही वन में चले जाने पर भी मेरा मन तुम्हीं में लगा रहेगा। दैवयोग से यदि [मेरा कुष्ठ रोग दूर हो गया और ] मैं सुन्दर शरीर वाला हो गया, तो पुनः घर को लौट आऊँगा ॥ ३३-३४ ॥ मेरी आज्ञा का पालन करने से जैसा तुम्हें धर्मलाभ होगा, वैसा मेरे साथ चलने से नहीं, इसलिये तुम [ नगर को] जाओ और मैं भी [वन को] जाता हूँ ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले — तब मन्त्रियों, नगर के निवासियों और पुत्र (हेमकण्ठ) – ने महान् कष्ट के साथ वापस लौटने का मन बनाकर राजा को नमस्कार किया । राजा ने भी आशीर्वाद एवं अभिनन्दनपूर्वक लौटने का आदेश दिया और सब लोग राजा की प्रदक्षिणा कर नगर के लिये निकल पड़े ॥ ३६-३७ ॥ तब छत्र और ध्वज से सुशोभित माननीय हेमकण्ठ ने गज-अश्व-रथ और पैदल सैनिकों से युक्त महान् सेना को आगे करके नगर को प्रस्थान किया ॥ ३८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘हेमकण्ठपुरप्रवेशन’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ 1. ‘गव्यूतिः स्त्री क्रोशयुगम्। (अमरकोश २ । १ । १८ ) Content is available only for registered users. 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