श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-25
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पच्चीसवाँ अध्याय
कौण्डिन्यनगर के राजा चन्द्रसेन की पुत्रहीन अवस्था में मृत्यु, मुद्गलमुनि का उनके उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में निर्णय देना
अथः पञ्चविशोऽध्यायः
संस्कार वर्णनं

विश्वामित्रजी बोले — हे राजन् ! दैव और काल के प्रभाव से घटित इस मंगलमयी आश्चर्यकारी घटना के विषय में श्रवण करो। कौण्डिन्यनगर में महाबुद्धिमान् चन्द्रसेन राजा थे। अपने कर्मफल का भोग कर लेने पर कालयोग से वे मृत्यु को प्राप्त हुए । [किये गये ] धर्मपूर्ण कार्यों की बहुलता के कारण वे दिव्य विमान से स्वर्ग को गये ॥ १-२ ॥ इस समाचार को सुनकर नगर के निवासी हाहाकार करने लगे। अनेक कार्यों का त्यागकर वे लोग दौड़ते हुए वहाँ पहुँचे ॥ ३ ॥

शोक से व्याकुल होकर लोग अपने हाथों से अपना सिर पीट रहे थे। गिरते-पड़ते उन्होंने वहाँ पहुँचकर राजा के मृत शरीर का दर्शन किया ॥ ४ ॥ दुःख और मोह के वश होकर उनमें से कुछ राजा के दोनों पैरों को पकड़कर उनके चरणों में झुक गये, कुछ ने उनका हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिया ॥ ५ ॥ कुछ लोग तीव्र स्वर में रोने लगे तो कुछ लोग मुख पर हथेली रखकर धीमे स्वर में रोने लगे। कुछ अन्य लोग अतिशय स्नेह के कारण मृतक की भाँति गिर पड़े ॥ ६ ॥

उस (राजा) – की पत्नी सुलभा अत्यन्त दुखी होकर अपने दोनों हाथों से अपने हृदय पर आघात करते हुए करुण स्वर में रुदन कर रही थी ॥ ७ ॥ उसके आभूषण बिखर गये थे और मूर्च्छा आ जाने से वह पृथ्वीपर गिर पड़ी थी। उसी के समान शोकाकुल नगर की अन्य स्त्रियों ने उसे पकड़कर बैठाया ॥ ८ ॥ उस समय राजा चन्द्रसेन की वह सुन्दरी पत्नी विलाप करने लगी। ‘हा नाथ! हा नाथ!’ कहती हुई वह लज्जा का त्यागकर विधाता को कोसते हुए इस प्रकार प्रलाप करने लगी — रे विधाता! तुझे दया नहीं है। तेरे क्रिया-कलाप बालकोंके-से हैं। पहले तुम दो प्राणियों में स्नेहभाव से संयोग कराते हो, फिर उनके कृतार्थ हुए बिना ही उनमें वियोग करा देते हो ॥ ९-१० ॥ हे राजन्! हे करुणानिधे! मुझे बताओ, तुम मुझसे पूछे बिना कहाँ चले गये ? तुम तो प्रतिदिन कहते थे कि हे प्रिये! भद्रासन पर बैठने जा रहा हूँ। मेरे किस अपराध के कारण आज तुम इतने निष्ठुर हो गये हो ? मेरे उस अपराध को तुम क्षमा कर दो। मैं लज्जा छोड़कर प्रजाजनों के मध्य तुम्हें नमस्कार करती हूँ ॥ ११-१२ ॥ मैं आपका प्रिय करने वाली प्रिया हूँ, पुत्रहीना होने के कारण बिना पति के मैं इस त्रिलोकी को शून्य देख रही हूँ, इसलिये आप जहाँ जा रहे हैं, वहाँ मुझे भी लेते चलें ॥ १३ ॥

मुनि बोले — उस ( राजा चन्द्रसेन) – के सुमन्तु और मनोरंजन नामवाले दो मन्त्री थे, वे भी रो-रोकर कहने लगे — अब राज्य का क्या होगा ? ॥ १४ ॥ हे राजश्रेष्ठ! आप हम दोनों से बिना विचार-विमर्श किये कहाँ चले गये? हे राजन् ! आप बोल क्यों नहीं रहे हैं? आपने मौन क्यों साध लिया है ? ॥ १५ ॥ आप अनाथ की भाँति विह्वल अपनी प्रिय पत्नी को भी नहीं देख रहे हैं। हम दोनों भी सम्पूर्ण गृहस्थाश्रम का त्याग करके आपके साथ चलते हैं। आपका नगर और राष्ट्र अनाथ हो गया है, कौन इसका पालन करेगा ? ॥ १६१/२

मुनि बोले — इसी बीच वहाँ वेद और शास्त्र के तात्त्विक अर्थ को जानने वाले और सुन्दर बुद्धि वाले एक ब्राह्मण ने निष्ठुर वाणी में कहा — तुम सभी स्वार्थपरायण हो, कोई भी वास्तविक हितैषी नहीं है। सुहृज्जनों के रोने से जो अश्रु गिरते हैं, वे मृत प्राणी के मुख में जाते हैं। प्राणहीन शरीर पृथ्वी पर भार होता है ॥ १७-१९ ॥ इस ब्रह्माण्डगोलक में ऐसा कौन है, जो मृतक का अनुगमन करता हो? यह रानी सुलभा अपने जीवन की आशा से रो रही है ॥ २० ॥ जिसका मन अनुगमन का होता है, वह कभी नहीं रोता । आप सभी नगरवासी अपने-अपने कार्यों पर जाने के लिये आकुल हैं ॥ २१ ॥ जो राजा सूर्यवंश और चन्द्रवंश में हुए, क्या वे नहीं मरे? इसलिये आप सभी उठकर राजा का संस्कार करें ॥ २२ ॥ मृतक का [अन्तिम] संस्कार करने वाला ही उसका
सच्चा हितैषी होता है, दूसरा नहीं । इसीलिये लोगों में पुत्रप्राप्ति की कामना रहती है ॥ २३ ॥ इसलिये धर्मपुत्र या किसी अन्य प्रकार के पुत्र को ले आओ। वह [अन्त्येष्टि ] क्रिया का आरम्भ करे और तत्पश्चात् सभी लोग [राजा को] तिलांजलि दें ॥ २४ ॥

मुनि बोले — तदनन्तर सभी नगरनिवासी, दोनों मन्त्री और वे स्त्रियाँ — सभी ने उस ब्राह्मण द्वारा प्रबोधित होकर [राजा का] और्ध्वदैहिक कर्म किया ॥ २५ ॥ सुमन्तु ने राजा की समस्त और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न की और सभी ने तिलांजलि दी। पुनः सभी ने स्नान करके देर से नगर में प्रवेश किया ॥ २६ ॥ तदनन्तर उन लोगों ने परमात्मा को नमस्कार करके निम्बपत्रों का प्राशन किया और रानी सुलभा को सान्त्वना देकर अपने-अपने घर को चले गये ॥ २७ ॥ त्रयोदशाह की समाप्ति पर उन लोगों ने रानी को वस्त्र देकर बहुत दिनों तक [उनके यहाँ राजा के प्रति ] प्रीतिवश प्रतिदिन भोजन किया ॥ २८ ॥

एक बार की बात है, कौण्डिन्यनगर के सभी निवासी, दोनों मन्त्री और राजा के प्रियजन प्रजापालन कर्म के सम्बन्ध में संशय में पड़े थे। उसी समय वहाँ मुद्गलमुनि आये और बोले — ‘राजा (चन्द्रसेन ) – का जो गजराज है, वह उनके सभी अभिप्रायों को जाननेवाला है । वह ‘गहन’ नामवाला गजराज कमल-पुष्पों से बनी माला [अपनी सूँड़ में] ग्रहण करे। सम्पूर्ण समाज में वह जिसके गले में उस माला को डाल देगा, वही राजा होगा’ ॥ २९-३१ ॥

तब उन अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न ब्राह्मण मुद्गल के इस प्रकार के वचनों का सबने ‘साधु-साधु’, ‘ऐसा ही हो’ कहकर अभिनन्दन किया ॥ ३२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘संस्कार का वर्णन’ नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.