श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-22
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बाईसवाँ अध्याय
दक्ष के पूर्वजन्म की कथा के प्रसंग में बल्लाल की गणेशभक्ति और बल्लालविनायक की महिमा का वर्णन
अथः द्वाविंशोऽध्यायः
बल्लालविनायक कथनं

राजा बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने कमलापुत्र दक्ष की चेष्टाओं से सम्बन्धित आश्चर्यजनक वृत्तान्त का वर्णन किया, [जिसे सुनकर मेरे मन में] महान् विस्मय उत्पन्न हो गया है ॥ १ ॥ जिसके घावयुक्त शरीर से रक्त का स्राव हो रहा था, साथ ही जिससे सड़े हुए मांस की दुर्गन्ध आ रही थी — ऐसे अन्धे, कुबड़े, गूँगे, अपवित्र और जिसकी श्वासमात्र चल रही थी, वह [ब्राह्मणश्रेष्ठ ] मुद्गल के शरीर के सम्पर्क में आयी वायु के स्पर्श से कैसे दिव्य देहवाला हो गया? और वह किस पुण्य के प्रभाव से किस पाप से मुक्त हुआ ? ॥ २-३ ॥

हे देव! जिन्होंने दिव्य सहस्र वर्षों तक परम तपस्या की थी, उन (मुद्गलजी) – को [अपने इष्टदेव का] दर्शन क्यों नहीं हुआ था ? ॥ ४ ॥ वल्लभपुत्र दक्ष पूर्वजन्म में कौन था? और उसे देवाधिदेव गजानन गणेशजी का बिना किसी कष्ट के प्रत्यक्ष दर्शन कैसे हो गया ? ॥ ५ ॥ हे सर्वज्ञ! ऐसा मेरे मन में संशय उत्पन्न हो गया है, आप इसका निराकरण करें। आपको नमस्कार है । गजानन (गणेशजी)-की कथारूपिणी सुधा का नित्य पान करते हुए भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ॥ ६ ॥

विश्वामित्रजी बोले — हे राजन् ! आपने सम्यक् प्रश्न किया है, आपके संशय का निवारण करने के लिये मैं सम्यक् रूप से सम्पूर्ण कथा कहता हूँ । हे नृप ! इसे एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो ॥ ७ ॥

सिन्धुदेश में पल्ली नाम की नगरी थी, जो अत्यन्त विख्यात थी। उस नगरी में कल्याण नामवाला एक धनवान् वैश्यश्रेष्ठ था ॥ ८ ॥ वह उदार, समृद्ध, बुद्धिमान् और देवताओं एवं ब्राह्मणों के प्रति भक्तिभाव रखने वाला था । उसकी सुन्दर स्वरूपवाली पत्नी इन्दुमती नाम से विख्यात थी ॥ ९ ॥ वह पातिव्रतधर्म का पालन करनेवाली, पति को प्राणों से भी प्रिय मानने वाली और पति के वचनों के प्रति भक्तिभाव रखने वाली थी। कुछ समय बाद उनके एक गुणवान् और उत्तम पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥ कल्याण ने उस अवसर पर ब्राह्मणों को पर्याप्त मात्रा में गौएँ, वस्त्र, आभूषण, रत्न, स्वर्ण और दक्षिणा दी ॥ ११ ॥ तब ज्योतिषियों द्वारा बतलाने पर उसने पुत्र का शुभ नाम बल्लाल रखा। बलशाली होने के कारण वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ १२ ॥

दीर्घकाल व्यतीत होने पर वह अपने समवयस्क बालकों के साथ ग्राम से बाहर जाकर प्रसन्नतापूर्वक देवपूजन में संलग्न रहने लगा ॥ १३ ॥

एक बार वे सब बल्लाल को अपना अग्रणी बनाकर वन को गये और वहाँ अनेक प्रकार की क्रीडाओं में संलग्न हो गये। वहाँ उन्होंने स्नानकर एक सुन्दर पत्थर को गणेश मानते हुए दूर्वांकुरों और सुन्दर पल्लवों से उनका सम्यक् पूजन किया। उनमें कुछ बालक उनके ध्यान में रत होकर उनका नाम-जप करने लगे और कुछ देवभक्ति के साथ वहाँ इच्छानुरूप नृत्य करने लगे तथा गायन में कुशल कुछ बालक देवता (गणेशजी ) – को सन्तुष्ट करने के लिये [ उनके स्तुतिपरक गीत] गाने लगे ॥ १४–१६ ॥ कुछ बालक उत्साहपूर्वक काष्ठ और पल्लवों से मण्डप की रचना करने लगे। कुछ बालक मन्दिर के परिसर के चारों ओर की दीवारों का और कुछ ने उत्तम देवालय का निर्माण किया ॥ १७ ॥ कुछ बालक मानसी पूजा करने लगे; कुछ ने पुष्पों, लताओं, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, ताम्बूल और दक्षिणा आदि का निवेदन कर परम प्रसन्नतापूर्वक उन (गणेशजी) – का पूजन किया। उसी प्रकार कुछ बालकों ने पण्डित बनकर पुराणों का व्याख्यान किया ॥ १८-१९ ॥ कुछ बालकों ने धर्मशास्त्रों पर तथा कुछ ने अन्य ग्रन्थों पर व्याख्यान किये। इस प्रकार देव (गणेश) – पूजा में संलग्न होकर उन बालकों ने बहुत दिन व्यतीत किये ॥ २० ॥

भगवान् गणेशजी की भक्ति के प्रभाव से उनमें से किसी को भी भूख-प्यास का बोध नहीं होता था । एक बार उन बालकों के पिता कल्याण वैश्य के पास गये और रोषपूर्वक वे सब कहने लगे — ‘अपने पुत्र बल्लाल को रोको, वह प्रतिदिन सभी बालकों को बुलाकर वन में चला जाता है। हमारे बालक प्रातः, मध्याह्न और रात्रि के आरम्भकाल में भी भोजन के लिये नहीं आते हैं, इससे वे दुर्बल होते जा रहे हैं, इसलिये अब तुम अपने पुत्र को इस विषय में अभी अनुशासित करो, नहीं तो हम लोग उसे बाँधकर बहुत पीटेंगे और नगर के अधिपति के पास जाकर तुम्हें नगर से बाहर करवा देंगे’ ॥ २१-२४ ॥

पहले कभी भी न सुने गये उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर क्रोधावेश से कल्याण के नेत्र गुड़हल के सदृश रक्तवर्ण के हो गये ॥ २५ ॥ वह बहुत बड़ा डण्डा लेकर पुत्र को पीटने के लिये चल दिया। वहाँ पहुँचकर उसने उस डण्डे के प्रहार से मण्डप को तोड़ डाला ॥ २६ ॥ हे राजन्! तब सभी बालक दशों दिशाओं में भाग गये, एकमात्र बल्लाल ही [गणेशजी के प्रति] दृढ़ भक्ति के कारण वहाँ स्थिर रहा ॥ २७ ॥ तब उस (कल्याण) – ने उसे (बल्लाल को) दृढ़तापूर्वक एक हाथ से पकड़कर डण्डे से भयंकर पिटाई की, जिससे उसके शरीर से वैसे ही रक्त की धाराएँ प्रवाहित होने लगीं, जैसे वर्षाकाल में पर्वत से जल की धाराएँ फूटकर बहने लगती हैं । [ इतना ही नहीं ], उसने सिन्दूरालेपित भगवान् गणेश के विग्रहरूप उस सुन्दर पत्थर को भी दूर फेंक दिया ॥ २८-२९ ॥ पुत्रस्नेह का त्यागकर दूसरे यमदूत के समान उस ( कल्याण वैश्य ) – ने अपने उस पुत्र ( बल्लाल ) – को बाँध दिया ॥ ३० ॥

एक वृक्ष में लताओं से निर्मित सैकड़ों पाशों से दृढ़तापूर्वक जिससे वह दाँतों, हाथों या पैरों के द्वारा मुक्त न हो सके। तत्पश्चात् उसने उस अपने पुत्र से कहा —  ‘तुम्हें [तुम्हारे] देवता ही अब मुक्त करेंगे। वे ही तुम्हें भोजन और जल देंगे और वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। यदि तुम घर आओगे, तब तुम अवश्य मरोगे – यह मैं सत्य कहता हूँ’ ॥ ३१-३२ ॥ अत्यन्त क्रोधाविष्ट कल्याण वैश्य देवालय को तोड़कर और अपने पुत्र को वन में बाँधकर शीघ्र ही अपने भवन को चला आया। दैवयोग से वह अत्यन्त दुष्ट हो गया था ॥ ३३ ॥ उस (कल्याण) -के चले जानेपर वह वैश्यपुत्र (बल्लाल) मन में गणेशजी का चिन्तन करता हुआ शोकाकुल हो गया और बोला —  हे देव! सभी लोगों द्वारा ‘विघ्नारि ‘ – यह नाम आपका कैसे कहा गया ? ॥ ३४ ॥ जब आप दुष्टों और विघ्नों का नाश नहीं करते, तो ‘दुष्टान्तक’ के रूप में आपकी कैसे प्रसिद्धि हुई ? शेषजी पृथ्वी को धारण करना छोड़ दें, सूर्य प्रकाश करना छोड़ दे, चन्द्रमा अमृत [-की वर्षा करना ] छोड़ दे या अग्नि उष्णता छोड़ दे, परंतु आप भक्तों को नहीं छोड़ते — ऐसा वेदों और शास्त्रों में कैसे प्रसिद्ध है ? — इस प्रकार विलाप करते हुए उसने अपने कल्याण नाम वाले अत्यन्त दुष्ट पिता को शाप दे दिया — ॥ ३५-३६ ॥

‘यदि मेरी गजानन गणेशजी में सुदृढ़ और उत्तम भक्ति हो तो जिसने मेरे इस उत्तम देवालय का विध्वंस किया है, गणेशजी की मूर्ति को फेंक दिया है और मुझे प्रताड़ित किया है — वह निश्चित रूप से बहरा, कुबड़ा और गूँगा होगा। [हे प्रभो !] मैंने जो कुछ भी कहा, वह सब सत्य हो जाय । उस [मेरे पिता ] -की शक्ति मेरे शरीर को ही बाँध सकने की है, वह मेरी भक्ति और मेरे मन को नहीं बाँध सकता । अनन्य बुद्धि से भगवान् गणेश का चिन्तन करके मैं इस विजन वन में अपनी देह का त्याग करता हूँ; क्योंकि [पिता द्वारा पीटे जाने के भय से] जब मैंने पलायन नहीं किया था, तभी मैंने इस देह का देवता को अर्पण कर दिया था’ ॥ ३७–४० ॥

सके इस प्रकार के निश्चय को जानकर भगवान् गजानन गणेशजी बल्लाल [-की भक्ति ] -के प्रभाव से ब्राह्मण स्वरूप से प्रकट हो गये ॥ ४१ ॥ जैसे भगवान् सूर्यदेव के उदयाचल पर आगमन से रात्रि का अन्धकार दूर हो जाता है, वैसे ही बल्लाल के बन्धन उन गणेशजी के तेज से शिथिल हो गये ॥ ४२ ॥ तत्पश्चात् उसने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। उस समय उसकी देह सौन्दर्यपूर्ण हो गयी, उसमें न तो घाव थे, न ही रक्तस्राव हो रहा था। उन देवाधिदेव के दर्शन से उसके अन्तःकरण में निर्मल ज्ञान का प्रादुर्भाव हो गया और तब उसने बुद्धि के अनुसार विविध स्तोत्रों से उन गजानन गणेशजी का स्तवन किया ॥ ४३-४४ ॥

 ॥ बल्लाल उवाच ॥
त्वमेव माताऽसि पिताऽसि बन्धुस्त्वमेव कर्ताऽसि चराचरस्य ।
निर्मासि दुष्टाँश्च खलाँश्च साधून् योनौ वियोनौ विनियुङ्क्ष्यथापि ॥ ४५ ॥
>त्वमेव दिक्चक्रनभोधराब्धिगिरीन्द्रकालानलवायुरूपः ।
रवीन्दुताराग्रहलोकपालवर्णेन्द्रियार्थौषधिधातुरूपः ॥ ४६ ॥

बल्लाल बोला — [ हे प्रभो !] आप ही [मेरे] माता, पिता और बन्धु हैं । आप ही इस स्थावर-जंगमात्मक जगत् के कर्ता हैं। आप ही दुष्टों, अत्याचारियों और साधुजनों का सृजन करते हैं । आप ही प्राणियों को विभिन्न शुभ योनियों और कुत्सित योनियों में जन्म देते हैं ॥ ४५ ॥ आप ही दिशाचक्र, आकाश, पृथिवी, समुद्र, पर्वत, इन्द्र, काल, अग्नि और वायुरूप वाले हैं। सूर्य, चन्द्रमा, तारा, ग्रह, लोकपाल, वर्ण, इन्द्रियों के विषय, औषधि और धातु के रूप में आप ही हैं ॥ ४६ ॥

मुनि [विश्वामित्र ] बोले — [हे राजा भीम ! बल्लाल द्वारा की गयी] इस स्तुति को सम्यक् रूप से सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए गजानन गणेशजी ने अपने भक्त [बल्लाल] – का आलिंगनकर मेघसदृश [गम्भीर ] वाणी में कहा — ॥ ४७ ॥

गजानन (गणेशजी ) बोले — मेरे मन्दिर को जिसने तोड़ा है, वह अवश्य ही नरक में गिरेगा। मेरी आज्ञा से तुम्हारा शाप भी उसपर वैसे ही प्रभावी होगा ॥ ४८ ॥ मेरे शाप से वह अन्धा, बहरा, कुबड़ा, गूँगा और रक्तस्राव करते हुए घावों से युक्त शरीरवाला होगा — इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४९ ॥ इसका पिता इसे माता के साथ घर से बाहर कर देगा। अब तुम अपनी अन्य इच्छाओं को बताओ, दुष्प्राप्य होने पर भी मैं तुम्हें उन्हें दूँगा ॥ ५० ॥

मुनि बोले — इसपर बल्लाल ने भगवान् गणेश से कहा — [ हे देव !] मुझमें आपकी दृढ़ भक्ति हो । आप इस क्षेत्र में स्थिर रहकर विघ्नों से मनुष्यों की रक्षा करें ॥ ५१ ॥

गणेशजी बोले — यहाँ के मनुष्य पहले तुम्हारे नाम का उच्चारण कर फिर मेरा शुभ नाम बोलेंगे। इस नगर में मैं ‘बल्लालविनायक’ – इस नाम से प्रतिष्ठित रहूँगा ॥ ५२ ॥ तुम्हारा मन मुझमें स्थिर रहेगा और तुम्हारी [मेरे प्रति] भक्ति अनन्य होगी । जो भाद्रपदमास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मेरे पल्ली 1  नामक नगर की यात्रा करेंगे, उनकी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करूँगा ॥ ५३१/२

भृगुजी बोले — [हे राजा सोमकान्त!] इस प्रकार वर देकर भगवान् गणेश वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ५४ ॥ तदनन्तर बल्लाल ने ब्राह्मणों के साथ अनेक प्रकार की शोभा से समन्वित मन्दिर का निर्माण करवाया और वहीं रहने लगा, वह फिर पिता के घर नहीं गया ॥ ५५ ॥

विश्वामित्रजी बोले — [ हे राजा भीम !] मैंने तुमसे बल्लालविनायक से सम्बन्धित इस कथानक का वर्णन किया, जिसको सुनकर व्यक्ति सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है और सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥ ५६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘बल्लालविनायक का वर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

1. ‘महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के सुधागढ़ तालुके में अम्बा नदी के तट पर पाली ग्राम है। यह स्थान मुम्बई से १२० किमी की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि ‘बल्लाल विनायक क्षेत्र’ सिन्धुदेश में था, किंतु अब वह लुप्त हो गया है।

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