श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-21
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
इक्कीसवाँ अध्याय
राजकुमार दक्ष की मुद्गल से भेंट और मुद्गल का उसे गणेशजी के एकाक्षर मन्त्र का उपदेश देना
अथः एकविंशतितमोऽध्यायः
मन्त्रोपदेश वर्णनं

[ मुनि ] विश्वामित्रजी बोले — [हे राजा भीम!] अत्यन्त विह्वल वल्लभपुत्र दक्ष इधर-उधर घूमता और दौड़ता रहा, उसे अपने वस्त्रों और आभूषणों का भी ज्ञान न रहा ॥ १ ॥ वह मार्ग में ब्राह्मणों और [यहाँ तक कि] वृक्षों से भी विनायक ( श्रीगणेशजी ) – के विषय में पूछ रहा था कि विघ्नविनायक श्रीगणेशजी कहाँ चले गये ? आप लोगों ने उन्हें कहीं देखा हो तो मुझे बतलाइये ॥ २ ॥

हे नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार उसका चित्त भ्रान्त हो गया था और उसके नेत्र घूम रहे थे । [ इसी दशा में ] वह भूतल पर गिर पड़ा तथा क्षणभर के लिये चेतनाहीन हो गया ॥ ३ ॥ इसी बीच स्वप्न (अर्धचेतनावस्था) -में उस [बालक दक्ष]-ने अपने आगे खड़े हुए ब्राह्मण को देखा, [जो कह रहा था — ] हे बालक ! मुझ मुद्गल ने तुम्हें तुम्हारा इच्छित वह सब कुछ दे दिया, जिसकी पूर्वकाल में तुमने विघ्नेश्वर गणेशजी का दर्शन होने पर याचना की थी । हे नृपोत्तम! इस प्रकार कहकर उस ब्राह्मण के [वहाँ से] प्रस्थान कर जाने पर दक्ष सुप्तावस्था से जाग्रत् होने की भाँति उठ बैठा। उस समय उसका मन अत्यन्त प्रसन्न हो गया था। उसी समय आये हुए एक द्विज से उसने [ब्राह्मणश्रेष्ठ मुद्गल के विषय में] पूछा — ॥ ४-६ ॥

तब उस ब्राह्मण ने निकट ही स्थित, गजानन गणेशजी के अत्यन्त भक्त और उनकी भक्ति में संलग्न रहने वाले मुद्गल के परम दिव्य आश्रम का दर्शन कराया, जो अनेक शिष्यों से शोभायमान और सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अभयप्रद था । मन में मुद्गल का ध्यान करते और घूमते हुए दक्ष उनके आश्रम में पहुँचा, जो कि अनेक प्रकार के आश्चर्यों से युक्त और रमणीयता में [ यक्षराज कुबेर की नगरी] अलकापुरी [ में स्थित चैत्ररथ वन ] एवं [देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती में स्थित ] नन्दनवन का भी अतिक्रमण कर रहा था। वहाँ उसने अत्यन्त मूल्यवान् आसन पर आसीन द्विज मुद्गल का दर्शन किया; जो सूर्य के समान तेजस्वी, योगबल से अनेक रूप धारण करने में समर्थ, वेद-वेदांगों के ज्ञाता और सम्पूर्ण शास्त्रों में निष्णात थे ॥ ७-१० ॥

वे भगवान् विनायक गणेशजी की रत्नजटित सुवर्णमयी महान् मूर्ति; जो चार भुजाओं और तीन नेत्रोंवाली तथा अनेक प्रकार के अलंकारों से शोभायमान थी, का षोडशोपचारों से विधि-विधानपूर्वक पूजन कर रहे थे । उन्हें देखकर दक्ष ने पृथ्वी पर दण्ड की भाँति लेटकर प्रणाम किया। [उस समय] उसके नेत्रों से आँसू गिर रहे थे और वह बार-बार लम्बी साँसें ले रहा था ॥ ११-१२१/२

विश्वामित्रजी कहते हैं — [हे राजन्!] तब मुद्गलजी ने उससे पूछा कि तुम कौन हो और यहाँ किसलिये आये हो ? ॥ १३ ॥ कहो, तुम्हारा दुःख दूर करूँगा, तुम्हें क्या दुःख है ? सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाओ। तब ब्राह्मण के इस प्रकार के वचन को सुनकर कमलानन्दन दक्ष ने सावधानमन होकर उन द्विजश्रेष्ठ से कहा — ॥ १४१/२

दक्ष बोला — हे ब्रह्मन् ! मैं अपने अभिप्राय को सत्य- सत्य आपके समक्ष कह रहा हूँ — ॥ १५ ॥

कर्णाटदेश के अन्तर्गत भानु नामक नगर में वल्लभ नाम के नीतिमान्, ज्ञानी, दानी और दयालु राजा हुए ॥ १६ ॥ उनकी भार्या कमला ने जब मुझे जन्म दिया, तब मैं दुर्गन्धियुक्त था, मेरे शरीर में घाव थे और मेरी नासिका से रक्तस्राव हो रहा था ॥ १७ ॥ मैं अन्धा, कुबड़ा, बधिर और मूक था तथा जोर-जोर से श्वास ले रहा था। मुझे देखकर वहाँ के नागरिकों ने कहा कि इसका त्याग कर दीजिये ॥ १८ ॥ मेरे पिता ने बारह वर्षों तक मुझे स्वस्थ करने के अनेक प्रयत्न किये; [यहाँतक कि भगवान् शंकर को उद्देश्य कर घोर तपस्या की ।] परंतु वे महेश्वर से भी मेरे स्वास्थ्य के सन्दर्भ में कुछ न प्राप्त कर सके, तब निर्दयी अन्तःकरण वाले होकर उन्होंने मुझे और मेरी माता कमला को बाहर निकाल दिया ॥ १९-२० ॥ तब मेरी दुखी माता एक पुर-से- दूसरे पुर में मुझे साथ लेकर भ्रमण करती हुई भूख से पीड़ित होकर कौण्डिन्यपुर आयी । यहाँ आकर भिक्षाटन करते हुए हम दोनों को पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रभाव से आपके वैसे ही दर्शन हो गये, जैसे अन्धे को आँखें मिल गयी हों ॥ २१-२२ ॥

आपके शरीर के सम्पर्क में आयी वायु के स्पर्श के प्रभाव से मेरे सारे दोष चले गये और जैसे पूर्वकाल में रघुनाथ श्रीरामचन्द्रजी के चरणों के स्पर्श से अहल्या को दिव्य शरीर की प्राप्ति हो गयी थी, हे सुव्रत! वैसे ही आपके कृपाप्रसाद से मुझे भी दिव्य देह की प्राप्ति हो गयी। [इस विषय में] मुझे तो कुछ ज्ञात नहीं था, मेरी माता ने ही मुझे सब कुछ बतलाया ॥ २३-२४ ॥ तब आश्चर्यचकित होकर मैंने अपने हृदय में निश्चय किया कि जिसके शरीर के सम्पर्क में आयी वायु के स्पर्श से मुझे दिव्य देह की प्राप्ति हुई है, जब मुझे उसका दर्शन होगा, तभी मैं यह देह धारण करूँगा अर्थात् जीवित रहूँगा — ऐसा सोचकर मैं बहुत दिनों तक भ्रमण करता रहा, तब हम दोनों [ माता – पुत्र] -की तपस्या से सन्तुष्ट होकर वे करुणानिधान देवाधिदेव भगवान् गजानन (गणेशजी) मेरे सामने प्रकट हुए। उनकी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान थी ॥ २५-२७ ॥

उनका दर्शन कर [मेरी माता ] कमला की मनोभिलषित समस्त कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। तब उन ब्राह्मणदेवता ने प्रसन्न होकर मधुरवाणी में कहा — जिसके [दर्शन के] लिये तुमने तपस्यारूपी व्रत का नियम लिया था और भ्रमण करते हुए कष्ट उठा रहे थे, वही मैं ब्राह्मणश्रेष्ठ मुद्गल तुम्हें दर्शन दे रहा हूँ। उनका वचन सुनकर मेरा मन हर्षित हो गया, तदनन्तर मैंने गजानन गणेशजी का अनेक स्तोत्रों से स्तवन किया ॥ २८-३० ॥

तब अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्होंने कहा — ‘हे महाबुद्धिमान् [दक्ष] ! तुम वर माँगो ।’ तब मेरे मन में जो भी अभिलाषाएँ थीं, वे सब मैंने उनसे कहीं ॥ ३१ ॥ तब उन्होंने उस ब्राह्मणरूप का त्यागकर अन्य रूप धारण किया, जो चार भुजाओं और विशाल शरीरवाला था। उनके सिर पर मुकुट था और वे अपने चारों हाथों में क्रमशः परशु (फरसा), कमल, माला तथा मोदक लिये हुए थे। उन्होंने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था और उनके [मुखमें] एक दाँत और सूँड़ शोभायमान थे। उन्होंने कानों में दो कुण्डल धारण कर रखे थे, जो दूसरे दो सूर्यबिम्बों के सदृश प्रतीत हो रहे थे। उनका श्रीविग्रह दिव्य अलंकारों से अलंकृत था और उनके उदरप्रदेशपर सर्प वलयाकार लिपटे हुए थे ॥ ३२-३४ ॥

देवर्षियों, गन्धर्वगणों और किन्नरों से उपशोभित उनके उस रूप को देखकर मैं आनन्द से उसी प्रकार परिपूर्ण हो गया, जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा को देखकर समुद्र [आनन्द से] पूर्ण हो जाता है। तब उन गजानन गणेशजी ने कहा कि [ब्राह्मणश्रेष्ठ] मुद्गल तुम्हारी समस्त कामनाओं को पूर्ण कर देंगे ॥ ३५-३६ ॥ जबतक मैं [गणेशजी के ] उस रूप को आदरपूर्वक देख पाता, तबतक वह वैसे ही अन्तर्हित हो गया, जैसे जग जाने पर स्वप्न नहीं दिखायी देता ॥ ३७ ॥ तब मैं अत्यन्त दुखी होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया, तदनन्तर पुनः चेतना आने पर गणेशजी के ‘वर माँगो’ – इस वचन का स्मरण करते हुए मैंने उन सर्वव्यापी ईश्वर देवाधिदेव से याचना की कि ‘मेरे घर में सुस्थिर लक्ष्मी का वास हो और वैसे ही मेरे मन में आपके प्रति सुस्थिर (दृढ़) भक्ति हो ॥ ३८-३९ ॥ पूर्वजन्मों में किये गये पुण्यकर्मों के फलस्वरूप मुझे आपके दर्शन हुए हैं, आप मुझे ये दो वर प्रदान करें ।’ तदनन्तर मुझे आकाशवाणी सुनायी दी कि ‘मैंने तुम्हें वरदान दे दिये ‘ ॥ ४० ॥

हे विप्र ! तब हर्षित मनवाला होकर मैं आपके सान्निध्य में आया हूँ । आप मुद्गल ही गजानन हैं और आप गजानन ही मुद्गल हैं — ऐसा मेरे मन में स्पष्ट प्रतीत होता है कि सब कुछ गजानन ही हैं ॥ ४११/२

भृगुजी बोले — उसका (दक्ष का) इस प्रकार का वचन सुनकर मुद्गल ने कहा — हे कमलापुत्र ! तुम भाग्यशाली हो, कृतकृत्य हो, भक्त हो; तुम्हारी भक्ति की महिमा का कथन करने में कोई सक्षम नहीं है ॥ ४२-४३ ॥ मैं एक हजार वर्षों से तपस्या में सुदृढ़ हूँ, फिर भी मुझे परमात्मा का इस प्रकार से दर्शन कभी नहीं हुआ ॥ ४४ ॥ जो सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं, स्थावर-जंगमात्मक सभी प्राणियों के गुरु के भी गुरु हैं, जो राजस- सात्त्विक और तामस गुणों के प्रेरक और तीनों गुणों के नित्य आश्रय हैं, जो ब्रह्मा, शिव और विष्णु के शरीरों के सृजनकर्ता हैं, जो प्राणियों; विभूतियों; तन्मात्राओं; इन्द्रियों और बुद्धि के भी कर्ता हैं, जिसे देवता; वेद और ऋषिगण भी सम्यक् रूप से नहीं जानते हैं — ऐसे गजानन गणेशजी का स्पष्ट रूप से तुमने प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया! मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ; क्योंकि आप परम भक्तिमान् हैं ॥ ४५–४७१/२

भृगुजी कहते हैं — [हे राजन्!] तदनन्तर उन दोनों ने परस्पर प्रणाम करके एक-दूसरे का आलिंगन किया। समान चित्तवाले वे दोनों गुरुभाई उसी अवस्था में बहुत देर तक स्थित रहे । तदनन्तर विनम्र राजपुत्र को मुद्गल ने जप और ध्यानसहित एकाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया और उससे पुनः कहा कि तुम इस मन्त्र का प्रतिदिन अनुष्ठान करो, इससे गजानन गणेशजी तुम पर प्रसन्न हो जायँगे और जो भी तुम्हारी मनोऽभिलाषाएँ हैं, उन सबको प्रदान करेंगे ॥ ४८–५१ ॥ यदि इस मन्त्र का तुम त्याग कर दोगे, तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। इस लोक में यदि तुम सुदीर्घ कालपर्यन्त गणेशजी की भक्ति-उपासना में निरत रहोगे, तो इन्द्रादि लोकपालगण 1  भी तुम्हारे वश में रहेंगे। तुम इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोगकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करोगे ॥ ५२-५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘मन्त्रोपदेशवर्णन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥

1. यहाँ इन्द्रादि लोकपालगणों से इन्द्रादि दस दिक्पालों का बोध करना चाहिये; क्योंकि लोकपाल के रूप में गणेश, देवी दुर्गा, वायु, आकाश और दोनों अश्विनीकुमारों का ही प्रायः बोध होता है —
गणेशश्चाम्बिका वायुराकाशश्चाश्विनौ तथा ।
ग्रहाणामुत्तरे पञ्च लोकपालाः प्रकीर्तिताः ॥
(स्कन्दपुराण)
दस दिक्पाल इस प्रकार हैं — १. इन्द्र, २. अग्नि, ३. यम, ४. निर्ऋति, ५. वरुण, ६. वायु, ७. कुबेर, ८. ईशान, ९. ब्रह्मा तथा १०. अनन्त ।

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