श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-02
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
दूसरा अध्याय
गलित कुष्ठ से पीड़ित राजा सोमकान्त का वन में जाने का निश्चय करना
अथः द्वितीयोऽध्याय
सोमकान्तस्य अङ्गेभ्य गलितकुष्ठरोगस्य उद्भवः, वन गन्तुं च विचारः

सूतजी बोले — हे ऋषियो ! आप सब अब सोमकान्त के दुष्कृत्य को सुनें, उस धर्मशील राजा को पूर्वजन्मों के कर्मफल से अकस्मात् अत्यन्त दुःखदायी गलित कुष्ठ हो गया ॥ ११/२

मनुष्य के द्वारा किया गया शुभ या अशुभ कर्म उसका कभी पीछा नहीं छोड़ता; जिस-जिस अवस्था में जैसा-जैसा कर्म किया गया होता है, उस-उस अवस्था में प्राणी को उसका फल भोगना पड़ता है, यह ध्रुव सत्य है ॥ २-३ ॥ अनेक घावों से युक्त, इधर-उधर बहते हुए रक्तवाले, मवाद और खून से लथपथ राजा (सोमकान्त) कीड़ों द्वारा काटकर विह्वल कर दिये जाते थे। उस समय वे दुःखरूपी सागर में उसी प्रकार निमग्न हो जाते थे, जैसे समुद्र में बिना नौका के मनुष्य । उस समय उन्हें ऐसी पीड़ा प्राप्त होती थी, जैसी कि सर्प के डसने से होती है ॥ ४-५ ॥ उन राजा का शरीर क्षयरोग से ग्रस्त रोगी की भाँति हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया। सभी इन्द्रियों के रोगयुक्त हो जाने से वे चिन्ता से व्याकुल हो उठे । तदनन्तर उन राजा सोमकान्त ने प्रयत्नपूर्वक मन को स्थिर करके मन्त्रियों से कहा — ॥ ६ ॥

राजा ने कहा — मेरे राज्य और रूप को धिक्कार है; [मेरे] बल, जीवन और धन को धिक्कार है! न जाने मेरे किस कर्म का बीज इस कष्ट के रूप में [प्रस्फुटित होकर ] समुपस्थित हुआ है ॥ ७ ॥ जिस [ शरीर ] -की कान्ति से सोम (चन्द्रमा) – को जीतकर मैं सोमकान्त कहलाया; जिससे मैंने साधुओं, दीनों, श्रोत्रिय ब्राह्मणों और सभी आश्रमों के लोगों, जनपद के निवासियों और अन्य लोगों का भी पुत्रवत् पालन किया; जिसके द्वारा मैंने अपने बाणों से भयंकर रूप वाले शत्रुओं को जीत लिया; जिसके द्वारा मैंने सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में कर लिया; सम्यक् रूप से देवाधिदेव परमात्मा सदाशिव का आराधन किया; जो दुष्टों के संग से रहित और चित्त का निग्रह करनेवाला था, पूर्वकाल में मैंने अपने जिस शरीर के द्वारा रुचिकर सुगन्धियों का विशेषरूप से सेवन किया था, वही आज सड़े हुए मांस की गन्धवाला हो गया है, अतः मेरा जीवन निरर्थक है; इसलिये मैं आप सबकी अनुमति लेकर वन में जाऊँगा ॥ ८-१२ ॥ मेरे बुद्धि-पराक्रम-सम्पन्न पुत्र हेमकण्ठ को आप सब राज्य-संचालनहेतु अभिषिक्त करें और अपने पराक्रम से उसकी रक्षा करें ॥ १३ ॥ हे महामन्त्रियो! अब मैं लोक में अपना मुख किसी को नहीं दिखलाऊँगा; न मुझे [अब] राज्य से कोई प्रयोजन है, न स्त्री से, न जीवन से और न धन से । अब मैं वन में जाकर अपना हितसाधन करूँगा ॥ १४१/२

सूतजी बोले — हे श्रेष्ठ द्विजगण ! ऐसा कहकर मवाद, रक्त और पसीने से लथपथ वे (राजा सोमकान्त) आँधी के झोंके से उखड़े हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। [उस समय] मन्त्रियों और स्त्रियों का वहाँ महान् कोलाहल हो रहा था ॥ १५-१६ ॥ क्षणभर में ही लोगों का वहाँ अत्यन्त दारुण हाहाकार होने लगा । तब मन्त्रियों ने वस्त्र से पोंछकर, हवा करके, शीघ्र लाभ करने वाली औषधियों और मन्त्रों का प्रयोग करके उन्हें सचेतन किया और उन राजा सोमकान्त के स्वस्थ होने पर उनसे मन्त्रियों ने इस प्रकार कहा — ॥ १७-१८ ॥

मन्त्रियों ने कहा — हे राजन्! आपकी कृपा से सभी मनुष्यों के लिये दुर्लभ देवराज इन्द्र के तुल्य सुखों का हमने भोग किया, अब हम आपके बिना कैसे रह सकते हैं ? पशुओं का वध करने वाले कसाई की भाँति कैसे जीवन धारण कर सकते हैं ? आपका पुत्र बलवान् है, शत्रुओं का नाश करने वाला है और राजकोष भी प्रभूत धन से सम्पन्न है, अतः वह अकेला ही राज्य कर सकता है। हम लोग सारे सुखों का त्याग करके आपके साथ ही वन को चलते हैं ॥ १९-२० ॥

सूतजी बोले — तदनन्तर [ राजा सोमकान्त की रानी ] सुधर्मा ने कहा कि हे श्रेष्ठ मन्त्रियो! मैं ही अकेली राजा की सेवा के लिये इनके साथ वन को जाऊँगी और आप लोग मेरे पुत्र के साथ राज्य का भलीभाँति रक्षण-पालन करें ॥ २१ ॥ पूर्वकाल में किये गये [पाप या पुण्य] कर्म का फल दुःख या सुख के रूप में प्राणी को स्वयं ही भोगना पड़ता है, दूसरा कोई उसे नहीं भोग सकता । जिस-जिस प्रकार से कर्मफल को भोगना निश्चित होता है, उसे वैसे ही और स्वयं को ही भोगना पड़ता है ॥ २२ ॥ मैंने भी इनके साथ अनेक प्रकार के सुखों का भोग और राज्य किया है। मुनियों का कथन है कि नारी को इहलोक और परलोक — दोनों में पति का ही अनुगमन करना चाहिये ॥ २३ ॥

तब विनीत और शोकसंतप्त पुत्र हेमकण्ठ ने [अपने पिता] राजा सोमकान्त से उस समय यह वचन कहा — ॥ २४ ॥

हेमकण्ठ बोला — हे नृपश्रेष्ठ ! आपके बिना मुझे राज्य, पत्नी, धनसंचय तथा प्राणों से भी कोई प्रयोजन नहीं है ॥ २५ ॥ हे धर्मपालक ! जैसे बिना तेल के दीपक और बिना प्राणों के शरीर व्यर्थ हैं, वैसे ही हे राजन् ! आपके बिना राज्य भी व्यर्थ है ॥ २६ ॥

सूतजी बोले — मन्त्रियों, रानी सुधर्मा और पुत्र हेम- कण्ठ के अमृत के समान वचनों को सुनकर प्रसन्नमन सोम-कान्त पुत्र से इस प्रकार धर्मानुकूल बात कही — ॥ २७ ॥

राजा बोले — पिता के वचनों का पालन करने में नित्य रत रहने वाला, [मरणोपरान्त ] श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला और गया में पिण्डदान करने वाला पुत्र ही पुत्र कहा जाता है 1  ॥ २८ ॥ इसलिये मेरी आज्ञा मानकर मन्त्रियोंसहित तुम नीतिपूर्वक राज्य करो और सम्पूर्ण प्रजा का पुत्रवत् अनुशासन करो ॥ २९ ॥ धर्मशास्त्रों के तत्त्वार्थ को जानने वाला, नीतिज्ञ, सबको सन्तुष्ट करने वाला, पितरों का उद्धार करने वाला और जो स्वयं भी पुत्रवान् है, उसी को पुत्र कहा जाता है ॥ ३० ॥ हे उत्तम व्रतों का पालन करने वाले [पुत्र ] ! गलित कुष्ठ वाला मैं अत्यन्त निन्दित हूँ, अतः पत्नी सुधर्मा के साथ मैं वन में जाऊँगा, इसका तुम समर्थन करो ॥ ३१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘सोमकान्तकुष्ठप्राप्तिवर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

1. जीवतो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरिभोजनात्।
गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता ॥

( श्रीमद्देवीभागवत ६ । ४ । १५)

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.