August 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-16 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ सोलहवाँ अध्याय सृष्टि-वर्णन, मधु-कैटभ की उत्पत्ति और ब्रह्माजी द्वारा उनके वध हेतु योगनिद्रा देवी की प्रार्थना करना अथः षोडशोऽध्यायः देवीप्रार्थनं राजा [ सोमकान्त ] बोले — हे ब्रह्मर्षि ! भगवान् गणेश की कथा सुनकर मन में हर्ष हो रहा है। इस कथारूपी अमृत से मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ, अतः आप इसे पुनः कहें ॥ १ ॥ हे प्रभो! परमात्मा भगवान् गणेश के अन्तर्धान हो जाने पर ब्रह्माजी ने किस प्रकार सृष्टि की, इसका आप वर्णन करें ॥ २ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! आगे ब्रह्माजी ने व्यासजी के प्रति जो आख्यान कहा, उसे मैं विस्तार से सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥ भृगुजी बोले — [हे राजन्!] प्रभु ब्रह्माजी ने व्यासजी के प्रति जो सिद्धक्षेत्र का माहात्म्य कहा तथा जो सृष्टि की रचना की, उसे मैं तुमसे क्रमशः कहूँगा ॥ ४ ॥ उन ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम सात मानस पुत्रों को उत्पन्न किया और उनसे कहा कि सृष्टिकार्य में सहायता करते हुए अपनी-अपनी बुद्धि से सृजन करो ॥ ५ ॥ उन सब [सातों मानस पुत्रों ] – ने उन (ब्रह्माजी) – की बात सुनकर तपस्या करने का निश्चय किया और अत्यन्त दीर्घकाल तक तपस्या करके परब्रह्म को प्राप्त हो गये ॥ ६ ॥ तब प्रजापति ब्रह्माजी ने अन्य सात पुत्रों की सृष्टि की, वे अत्यन्त ज्ञानसम्पन्न थे, परंतु उन्होंने उत्तम सृष्टि नहीं की ॥ ७ ॥ तब उन सनकादि पुत्रों को [सृष्टिकार्य में उदासीन ] देखकर उन्होंने स्वयं सृष्टि रचना प्रारम्भ की। कमलासन ब्रह्माजी ने मुख से ब्राह्मणों और अग्नि को जन्म दिया ॥ ८ ॥ उन्होंने भुजाओं, जंघाओं और पैरों से अन्य तीन वर्णों [क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ] – की सृष्टि की। उन्होंने अपने हृदय से चन्द्रमा को, नेत्रों से सूर्य को, कानों से वायु तथा प्राण को, नाभि से अन्तरिक्ष को, सिर से द्युलोक को, पैरों से भूमि को तथा कानों से दिशाओं एवं अन्य लोकों को प्रादुर्भूत किया ॥ ९-१० ॥ तदनन्तर स्थावर-जंगमात्मक इस विश्व में उच्च और निम्न स्थानों, समुद्रों, सरिताओं, पर्वतों, तृणों, गुल्मों (झाड़ियों) और वृक्षों की सृष्टि की ॥ ११ ॥ हे नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर कुछ दिन बीतने के बाद महाविष्णु के निद्रित होने पर उनके कानों से दो महान् असुर उत्पन्न हुए ॥ १२ ॥ तीनों भुवनों में विख्यात उन दोनों [महासुरों]-के नाम मधु और कैटभ थे। वे विकराल दाढ़ों, भयंकर मुख, पीली आँखों और दीर्घ नासिकावाले थे ॥ १३ ॥ वे दोनों विशालकाय, वज्रदेह वाले और पर्वत के सदृश ऊँचे थे। अत्यन्त घमण्डी वे दोनों वर्षाकालीन मेघकी भाँति गर्जन कर रहे थे ॥ १४ ॥ उन दोनों दुष्टों ने बहुत-से अपशब्दों का प्रयोगकर उन ब्रह्माजी को धिक्कारा और विप्रों, देवताओं, ऋषियों, साधुओं और शास्त्रों की निन्दा की ॥ १५ ॥ . उन दोनों के शब्द (गर्जन) – से पृथ्वी और शेष काँपने लगे। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनकी ध्वनि से उद्विग्न हो गया ॥ १६ ॥ तब वे दोनों क्रोध से आँखें लाल किये हुए उन ब्रह्माजी को खाने के लिये उद्यत हो गये। तब चिन्ता और हर्ष से युक्त उन कमलासन ब्रह्मा ने सम्यक् रूप से यह विचारकर कि गजानन गणेशजी की कृपा से विष्णु के हाथ से इन दोनों का वध होगा, मधु-कैटभ के नाश और श्रीहरि के प्रबोधन के लिये विष्णुभगवान् के नेत्रों में स्थित विष्णुमोहनकारिणी वरप्रदायिनी निद्रादेवी का स्तवन किया ॥ १७–१९ ॥ ॥ ब्रह्मा कृत देवी स्तुति ॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ स्वाहास्वधारूपधरा सुधा त्वं मात्रार्धमायास्वररूपिणी च । कर्त्री च हर्त्री जननी जनस्य सतोऽसतः शक्तिरसि त्वमेव ॥ २० ॥ श्रुतिः स्वरा कालरात्रिरनादिनिधनाऽक्षपा । जगन्माता जगद्धात्री सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥ २१ ॥ सावित्री च तथा सन्ध्या महामाया तृषा क्षुधा । सर्वेषां वस्तुजातानां शक्तिस्त्वमसि पार्वति ॥ २२ ॥ त्रैलोक्यकर्त्ता त्वन्नाथो दैत्यदानवसूदनः । निद्रया व्याप्तचित्तोऽसौ ज्ञानविज्ञानवान् हरिः ॥ २३ ॥ जगदुत्पाद्यते येन पाल्यते ह्रियतेऽपि च । सोऽपि त्वयावताराणां सङ्कटे विनियोज्यते ॥ २४ ॥ दुष्टात्मानौ मोहयैतौ त्वं दैत्यौ मधुकैटभौ । हन्तुमेतौ दुराधर्षौ ज्ञानमस्य प्रदीयताम् ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे देवि !] आप [देवताओं को हव्य प्रदान करने वाली] स्वाहारूपा, [पितरों को कव्य प्रदान करने वाली] स्वधारूपा और अमृतस्वरूपा हैं। आप ही मात्रा, अर्धमात्रा और स्वररूपिणी भी हैं। आप ही सृष्टि की कर्त्री, हर्त्री और लोकजननी हैं। आप ही सत् और असत्शक्तिरूपा हैं ॥ २० ॥ आप श्रुतिरूपा, स्वरस्वरूपा, कालरात्रि, जन्म- मृत्यु से रहित, रात्रिरूपा, जगज्जननी, जगद्धात्री और सृष्टि, पालन एवं संहार करने वाली हैं ॥ २१ ॥ हे पर्वतराजपुत्री ! आप ही सावित्री, सन्ध्या, महामाया, क्षुधा और तृषारूपिणी हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणि- पदार्थों में निहित उनकी शक्ति हैं। [हे देवि ! हे महालक्ष्मीरूपिणि!] आपके स्वामी तीनों लोकों के कर्ता, दैत्यों और दानवों के संहारक और ज्ञान-विज्ञानवान् हैं; ऐसे उन श्रीहरि के नेत्रों में निद्रा व्याप्त है ॥ २२-२३ ॥ जिन [ श्रीहरि] -के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, उसका पालन और संहार किया जाता है; आपके द्वारा उन्हें भी अवतार-ग्रहणरूपी संकट में डाल दिया जाता है ॥ २४ ॥ आप इन दोनों दुष्टात्मा दुराधर्ष दैत्यों मधु और कैटभ को मोहित कीजिये और इन्हें मारने के लिये इन (श्रीहरि) – को ज्ञान प्रदान कीजिये ॥ २५ ॥ मैं उन दोनों के द्वारा पूर्वजन्म में सावधानीपूर्वक आराधित हुआ था तथा मैंने उन्हें अनेक प्रकार के वर दिये थे, इसलिये वे दोनों मेरे द्वारा अवध्य हैं ॥ २६ ॥ इसीलिये मैंने उनके द्वारा कहे गये ऊँचे-नीचे अनेक अपशब्दों को सहन किया। वे दोनों मुझे मारना चाहते थे; मैंने अनेक स्तोत्रों से उनका स्तवन किया, फिर भी वे दोनों अपने दुष्ट स्वभाव के कारण मेरा वध करने के प्रयत्न से निवृत्त नहीं हुए। हे देवि ! इसीलिये मैंने भगवान् विष्णुका प्रबोधन करने के लिये आपसे प्रार्थना की ॥ २७-२८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘भगवती की प्रार्थना’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ Content is available only for registered users. 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