August 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-15 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ पन्द्रहवाँ अध्याय ब्रह्माजी द्वारा भगवान् गणेश की आराधना अथः पञ्चदशोऽध्यायः गजानन पूजा निरूपणं भृगुजी बोले — हे सोमकान्त ! लोकपितामह ब्रह्माजी ने व्यासजी से आगे जो कहा, उसे मैं कहता हूँ; तुम आदरपूर्वक श्रवण करो ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुनिवर ! तत्पश्चात् मैंने एक बड़ा सुन्दर स्वप्न देखा कि मैं आकाश में भ्रमण कर रहा हूँ और भ्रमण करते हुए मैंने जल में प्रचण्ड वायु, धूप एवं जलसे [प्रलयकाल में ] वटवृक्ष को देखा ॥ २ ॥ सम्पूर्ण चराचर जगत् के नष्ट हो जाने पर यह एकमात्र महान् वटवृक्ष कैसे अवशिष्ट रह गया — इस प्रकार आश्चर्य में पड़े मुझ ब्रह्मा को उस महान् वटवृक्ष के पत्ते पर एक छोटा-सा बालक दिखायी दिया, जिसके चार भुजाएँ थीं और वह मुकुट-कुण्डल से सुशोभित था । उसके कण्ठदेश में मणियों और मोतियों से निर्मित माला सुशोभित हो रही थी। उसने मस्तक पर अर्धचन्द्र, शरीर पर रक्तवर्ण के वस्त्र और कटिप्रदेश में करधनी धारण कर रखी थी। तेज से जाज्वल्यमान उसके श्रीविग्रह में सम्पूर्ण शरीर मनुष्य के जैसा, परंतु मुख हाथी का था, जिसमें एक दाँत था ॥ ३-५१/२ ॥ उसे देखकर मैंने विचार किया कि यह बालक कहाँ से यहाँ आ गया? तब उस बालक ने सूँड़ से मेरे मस्तक पर जल का प्रक्षेप किया तो मैं चिन्ता और आनन्द से युक्त होकर उच्च स्वर से हँस पड़ा ॥ ६-७ ॥ मेरे हँसने पर वह बालक वटवृक्ष से नीचे उतर आया और मेरी गोद में आकर वह मधुर वाणी में बोला — ॥ ८ ॥ बालक ने कहा — हे चतुरानन! मूढ़ बुद्धिवाले तुम व्यर्थ ही वृद्ध हुए हो, तुम अल्प से भी अल्प बुद्धिवाले हो। तुम विघ्नों से पीड़ित और सृष्टि करने की चिन्ता से युक्त हो। ‘तप कहाँ करूँ’ – इस चिन्ता से तुम निरन्तर जल के मध्य भ्रमण कर रहे हो। मैं तुम्हें सम्पूर्ण चिन्ताओं का हरण करने वाले अपने एकाक्षरमन्त्ररूपी उपाय का उपदेश करता हूँ; पुरश्चरणविधि से तुम इसका दस लाख जप करो। तब मैं तुम्हारे समक्ष प्रत्यक्ष होकर तुम्हें [सृष्टि-रचनासम्बन्धी ] उत्तम सामर्थ्य प्रदान करूँगा ॥ ९–१११/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे व्यासजी ! ऐसा आश्चर्यकारक स्वप्न देखकर सहसा मैं जग गया और सोचने लगा कि मुझे परमेश्वर (गणेशजी ) – के दर्शन कब होंगे? इस प्रकार मैं देखे गये स्वप्न के कारण आनन्दरूपी सागर में निमग्न हो गया ॥ १२-१३ ॥ तदनन्तर स्नान करके कमल पर एक पैर से खड़े होकर भगवान् गजानन का ध्यान करते हुए मैंने बहुत दिनों तक [उनके] परम मन्त्र का जप किया ॥ १४ ॥ जितेन्द्रिय और जिताहार रहते हुए मैंने काष्ठ और पाषाण की भाँति स्थिर होकर दिव्य सहस्र वर्षों तक परम महान् तप किया ॥ १५ ॥ तब मेरे मुख से भयंकर ज्वालाएँ प्रकट हो गयीं, जिनसे समस्त प्राणी अत्यन्त दारुण कष्ट पाने लगे ॥ १६ ॥ तब भगवान् गजानन गणेशजी मेरी उस सुदृढ़ निष्ठा को देखकर और मेरी परम भक्ति से मेरे समक्ष प्रकट हो गये ॥ १७ ॥ कोटिसूर्यसमानश्रीर्ज्वालामालीव हव्यभुक् । दहन्निव त्रिलोकीं स संहरन्निव रोदसी ॥ परशुकमलधारी दिव्यमायाविभूषः सकलदुरितहारी सर्वसौन्दर्यकोशः । करिवरमुखशोभी भक्तवाञ्छाप्रपोषः सुरमनुजमुनीनां सर्वविघ्नैकनाशः ॥ उनकी कान्ति करोड़ों सूर्यों के समान थी, वे ज्वालामालाओं से व्याप्त अग्नि की भाँति तीनों लोकों का दहन करते हुए-से प्रतीत हो रहे थे और ऐसा लगता था कि वे आकाश से लेकर पृथ्वी तक का संहार कर देने वाले हैं ॥ १८ ॥ वे भगवान् गजानन दिव्य मालाओं से विभूषित थे। उन्होंने अपने हाथों में परशु और कमल धारण कर रखे थे। वे सम्पूर्ण पापों का हरण करने वाले और सम्पूर्ण सौन्दर्यराशि के कोशस्वरूप थे। श्रेष्ठ गजराज के मुख के सदृश उनके मुख की शोभा थी। वे भक्तजनों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले तथा देवताओं, मनुष्यों और मुनियों की विघ्न-बाधाओं का एकमात्र नाश करने वाले थे ॥ १९ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ व्यासजी! उस तेजसमूह को देखकर मैं काँप उठा था, मेरा जप छूट गया और मैं व्याकुलचित्त होकर महान् चिन्ता में पड़ गया ॥ २० ॥ [उस समय] मेरी आँखें मुँद गयीं, स्मृति विलीन हो गयी । [तब] मेरी ऐसी अवस्था को देखकर विघ्नराज गणेशजी ने शीघ्र ही कहा — ॥ २१ ॥ गणेशजी बोले — हे लोकपितामह! भय न करो; जिसने तुम्हें स्वप्न में मंगलमय एकाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया था, वही मैं तुम्हारे समक्ष उपस्थित हूँ ॥ २२ ॥ उस मन्त्र के प्रभाव से तुम्हें सिद्धि की प्राप्ति हो गयी है, अतः मैं तुम्हें वर देने के लिये यहाँ आया हूँ । सम्प्रति मैं सौम्य भाव को प्राप्त हुआ हूँ, अतः हे सुव्रत ! तुम वर माँगो ॥ २३ ॥ मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारे हृदय में जो भी इच्छा वर्तमान है, वह सब मैं तुम्हें दूँगा । मेरे प्रसन्न होने से वे सब [कामनाएँ] पूर्ण हो जायँगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ २४ ॥ [ भृगु] मुनि बोले — [हे राजा सोमकान्त !] गणनायक गणेशजी के इस प्रकार के परम विशुद्ध वचनों को सुनकर और उन्हें अपने सम्मुख देखकर ब्रह्माजी अत्यन्त हर्षित हुए और उन चराचर के गुरु गणेशजी को अपने सभी (चारों) सिरों को झुकाते हुए प्रणाम कर प्रसन्न हृदय से कहा कि ‘आज मेरा जन्म सफल हो गया है ‘ ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी बोले — [ हे प्रभो!] जो वेदों, शास्त्रों, ज्ञानियों, योगियों और समस्त उपनिषदों को भी कभी दृष्टिगोचर नहीं होते; जो अनादिनिधन (जन्म – मृत्युसे परे), अनन्त, अप्रमेय (प्रमेयों और प्रमाणों से परे) और निर्गुण हैं, वे भगवान् गणेश मेरे [ न जाने किन] पुण्यसमूहों के कारण मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दे रहे हैं ॥ २६-२७ ॥ हे देवेश ! हे विघ्नेश! हे करुणाकर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो अपनी दृढ़ भक्ति मुझे प्रदान करें, जिससे दुःख हमारा स्पर्श भी न कर सकें ॥ २८ ॥ हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे विविध प्रकार की सृष्टि कर सकने की सामर्थ्य प्रदान करें और [मेरे इस कार्य में आनेवाली] विघ्न-बाधाएँ शान्त हो जायँ ॥ २९ ॥ मेरे स्मरण करनेमात्र से आप सदा मेरे कार्यों को सम्पन्न कर दें, मुझे विमल ज्ञान प्रदान करें और अन्तकाल में मुझे स्थिर मुक्ति प्राप्त हो ॥ ३० ॥ श्रीगजानन (गणेशजी ) बोले — [ हे ब्रह्मन् ! ] ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) तुम विविध प्रकार की विपुल सृष्टि करोगे। मेरा स्मरण करने से तुम्हारी सारी विघ्न- बाधाएँ सर्वथा नष्ट हो जायँगी ॥ ३१ ॥ मेरी कृपा से तुम्हें दृढ़ भक्ति और शुभ ज्ञान प्राप्त होगा। हे चतुर्मुख ब्रह्माजी ! तुम शंकारहित होकर सारे कार्यों को करो ॥ ३२ ॥ [ भृगु] मुनि बोले — [हे राजन्!] इस प्रकार उन प्रभु से वर प्राप्तकर ब्रह्माजी ने उनका पूजन किया। देवाधिदेव गणेशजी की कृपा से उनके पूजनार्थ ब्रह्माजी ने मन में जिन-जिन वस्तुओं का चिन्तन किया, वे वे वस्तुएँ उनके सम्मुख उपस्थित हो गयीं । दक्षिणा के अवसरपर [सिद्धि-बुद्धि नामक] दो कन्याएँ उनके सामने उपस्थित हो गयीं। वे दोनों सुन्दर नेत्रों और प्रसन्नतापूर्ण सुन्दर मुख से सुशोभित थीं। उनका श्रीविग्रह अनेक रत्नों से जटित नानाविध अलंकारों से शोभायमान था ॥ ३३–३५ ॥ दिव्य गन्ध से युक्त तथा दिव्य वस्त्र और मालाओं से विभूषित उन कन्याओं को गणेशजी के लिये दक्षिणा के रूप में कमलयोनि ब्रह्माजी ने प्रस्तुत किया ॥ ३६ ॥ कदलीगर्भसम्भूत कर्पूर से [ब्रह्माजी ने] गणेशजी का नीराजनकर उनको दिव्य पुष्पों से पुष्पांजलि दी और सहस्र नामों से उनका स्तवनकर उनकी परिक्रमा की ॥ ३७ ॥ तब ब्रह्माजी ने प्रार्थना की कि हे वन्दनीय ! आप दीनों का कल्याण करने वाले हों। इस प्रकार उन परमेष्ठी ब्रह्माजी से सम्यक् रूप से पूजित हुए विघ्नहर्ता भगवान् गजानन गणेशजी सिद्धि-बुद्धि को लेकर अन्तर्धान हो गये ॥ ३८-३९ ॥ तदनन्तर परमेश्वर की कृपा और आज्ञा से प्रसन्न (निर्मल) बुद्धिवाले ब्रह्माजी ने पूर्व की भाँति सृष्टि का विस्तार किया ॥ ४० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में गजानन की आराधना का वर्णन ‘ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Content is available only for registered users. 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