श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-14
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
चौदहवाँ अध्याय
सृष्टि करते समय विघ्नों द्वारा बाधित ब्रह्माजी का भगवान् गणेश की प्रार्थना करना
अथः चतुर्दशोऽध्यायः
ब्रह्मचिन्तावर्णनं

राजा [ सोमकान्त ] बोले — [ हे मुनिश्रेष्ठ !] तब सहस्रों ब्रह्माण्डों को देखने के बाद ब्रह्माजी ने क्या किया? उन्होंने गजानन (गणेशजी ) – से आज्ञा प्राप्तकर किस प्रकार सृष्टि की ? ॥ १ ॥

भृगुजी बोले — [हे राजन्! सृष्टि की रचना के लिये उद्यत] ब्रह्माजी अपने विषय में ऐसा विचार करते हुए गर्व से भर गये कि मैं वेदों, पुराणों, शास्त्रों और आगमों का भी ज्ञाता हूँ। मैं ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न और शाप देने अथवा अनुग्रह करने में समर्थ हूँ। मैंने अनेक ब्रह्माण्डों और सृष्टि की रचनाओं को देखा है। इस समय मैं सृष्टि करने में किसी भी प्रकार असमर्थ नहीं हूँ ॥ २-३१/२

हे राजन्! इस प्रकार जब सृष्टि करने में पूर्णतया समर्थ कमलोद्भव ब्रह्माजी सृष्टि करने लगे तो वहाँ अनेक प्रकार के सहस्रों विघ्न उत्पन्न हो गये ॥ ४१/२

उन अत्यन्त भयंकर विघ्नों ने ब्रह्माजी को उसी प्रकार घेर लिया, जैसे पुष्परस का पानकर मत्त हुए भ्रमर मधु के छत्ते को घेर लेते हैं ॥ ५१/२

वे विघ्न तीन नेत्रों वाले, पाँच हाथों वाले, कुएँ-जैसे मुखवाले, सात हाथों वाले, तीन पैरों वाले, पाँच थूथुनों वाले, सात थूथुनों वाले, छः पैरों वाले, दस मुखों वाले, पाँच पैरों वाले, ताड़-सदृश बड़े दाँतों वाले, भेड़ियों के से पेटवाले, अनेक रूपों वाले और महान् बलशाली थे; उनकी गणना नहीं की जा सकती थी। उनके अनेक प्रकार के कोलाहल को सुनकर ब्रह्माजी काँपने लगे ॥ ६-८ ॥ उनमें से कुछ ने उन पर मुक्कों से प्रहार किया, कुछ ने झुककर उन्हें प्रणाम किया, कुछ ने उनकी स्तुति की और कुछ ने आदरपूर्वक उनकी चारों शिखाओं को हिलाया । कुछ उनके चार मुखों की हँसी उड़ा रहे थे। कुछ उनकी निन्दा, तो कुछ प्रशंसा और कुछ उनकी सेवा कर रहे थे। कुछ ने उन्हें बाँध दिया, तो कुछ ने उन्हें खोल दिया। तत्पश्चात् कुछ उन्हें इधर-उधर खींचने लगे। उनमें से कुछ ने उनका आलिंगन किया, तो कुछ अन्य ने उन्हें शिशु की भाँति चूम लिया । एक आठ हाथवाले [विघ्न]- ने उनकी आठों मूछों को पकड़ लिया और नाचने |लगा ॥ ९-१२ ॥

इस प्रकार परवश हुए ब्रह्माजी चिन्ता और शोक से युक्त हो गये। उन्होंने स्वयं के सृष्टिकर्ता होने का जो हृदय में स्थित महान् गर्व था, उसे त्याग दिया। वे अपने जीवन के प्रति निराश होकर महान् मूर्च्छा को प्राप्त हो गये । तत्पश्चात् एक मुहूर्त बीतने पर सचेत होकर उन्होंने सर्वत्र व्यापक गणेशजी का मानसिक स्मरण किया और करुण स्वर से रोते हुए सदृश ब्रह्मा ने गजानन गणेशजी की प्रार्थना की ॥ १३-१४ ॥

ब्रह्माजी बोले — [ हे प्रभो!] अनेक प्रकार के प्राणियों की सृष्टि करने में संलग्न मनवाले मुझ ब्रह्मा की आयु स्वल्प नहीं है, अर्थात् मैं बड़ी आयुवाला हो चुका हूँ, फिर भी भवसागर से पार कराने वाले अत्यन्त निर्मल तत्त्वज्ञान की मुझे प्राप्ति नहीं हुई है । हे अखिलगुरो ! पृथ्वी पर जन्म लेकर आपका भजन करते हुए मैं कब परम भोग, अनुपम सुख और मोक्ष को प्राप्त करूँगा ? हे विभो! आपके [कृपा]- कटाक्षरूपी अमृत से अभिसिंचित होने कारण मुझ चिरायु की मृत्यु तो नहीं होगी, परंतु यह आपके लिये ही लज्जा की बात होगी कि आपका भक्त कष्ट पा रहा है ॥ १५-१६ ॥

भृगुजी बोले — [हे राजन् ! ] ब्रह्माजी के इस प्रकार प्रार्थना करते ही ‘तप करो’ – इस प्रकार की आकाशवाणी सुनायी दी। तब उन्होंने पुनः उन (गजानन) -से प्रार्थना की ॥ १७ ॥ [उधर] आकाशवाणी सुनते ही वे अनेकरूपधारी महान् बलशाली विघ्नसमूह उन कमलासन ब्रह्माजी को मुक्त करके अन्तर्धान हो गये ॥ १८ ॥ महान् यशस्वी कमलोद्भव ब्रह्माजी उन विघ्नों से मुक्त होकर विचार करने लगे कि ‘बिना मन्त्र और बिना स्थान के मैं महान् तपस्या कैसे करूँ?’॥ १९ ॥

इस प्रकार व्याकुल चित्तवाले ब्रह्माजी जल के मध्य भ्रमण करते रहे, तदनन्तर वे अनन्य भाव से मन-ही-मन अनामय (विघ्नरहित) – स्वरूपवाले गजानन गणेशजी का [इस प्रकार का ] ध्यान करने लगे — जो मोतियों और रत्नों से जटित सुन्दर मुकुटवाले, लाल चन्दन से आलिप्त शरीरवाले, सिन्दूरयुक्त अरुणिम मस्तक वाले, मोतियों की माला से सुशोभित सुन्दर कण्ठवाले, सर्प का यज्ञोपवीत धारण करने वाले, बहुमूल्य रत्नों से निर्मित बाजूबन्द से भूषित, देदीप्यमान पन्ना मणि की अँगूठियों से सुशोभित अँगुलियों वाले, विशाल नाभि से शोभित और महासर्पों से वेष्टित महान् उदरवाले, विचित्र रत्नजटित करधनी से सुशोभित कटिप्रदेशवाले, सुवर्ण के धागों से निर्मित रक्तवस्त्र से आवृत, मस्तक पर विराजमान चन्द्रमावाले और देदीप्यमान दाँत से सुशोभित सूँड़वाले हैं — ऐसे भगवान् गणेशके स्वरूपका ध्यान करते हुए पुनः यह आकाशवाणी हुई कि ‘वटवृक्ष को देखो, सुन्दर वटवृक्ष को देखो ।’ तब इस प्रकार का वचन सुनकर ब्रह्माजी पुनः चिन्ता को प्राप्त हो गये ॥ २०–२६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘ब्रह्माजी की चिन्ता का वर्णन ‘ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

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