August 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-13 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तेरहवाँ अध्याय ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भगवान् गणेश की स्तुति करना तथा गणेशजी का अपने उदर में स्थित असंख्य ब्रह्माण्डों का उन्हें दर्शन कराना अथः त्रयोदशोऽध्यायः ब्रह्मस्तुतिवर्णनं व्यासजी ने कहा — [हे ब्रह्मन् !] पाँच मुखों वाले शिव, चार मुखों वाले ब्रह्मा और सहस्र मस्तकों वाले विष्णु 1 ने उन वरदायक देव गजानन गणेशजी का स्तवन कैसे किया था ? ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — कृपा करने के लिये उन्मुख विघ्नराज गणेशजी की कृपादृष्टि पड़ने से बुद्धि की निर्मलता को प्राप्तकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने उनकी स्तुति की ॥ २ ॥ ॥ श्रीगणपति स्तोत्रराज ॥ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऊचुः ॥ अजनिर्विकल्पं निराकारमेकम् निरालम्ब (निरानन्द)मद्वैतमानन्दपूर्णम् । परं निर्गुणं निर्विशेषं निरीहं परं ब्रह्मरूपं गणेशं भजेम् ॥ ३ ॥ गुणातीतमाद्यं चिदानन्दरूपं चिदाभासकं सर्वगं ज्ञानगम्यम् । मुनिध्येयमाकाशरूपं परेशं परं ब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ ४ ॥ जगत्कारणं कारणज्ञानहीनं (रूपं) सुरादिं सुखादिं युगादिं गणेशम् । जगद्व्यापिनं विश्ववन्द्यं सुरेशं परं ब्रह्मरूपं गणेशं भजेम् ॥ ५ ॥ रजोयोगतो ब्रह्मरूपं श्रुतिज्ञं सदा कार्यसक्तं हृदाचिन्त्यरूपम् । जगत्कारकं सर्वविद्यानिधानं सदा ब्रह्मरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ ६ ॥ सदासत्त्वयोगं मुदा क्रीडमानं सुरारीन् हरन्तं जगन्पालयन्तम् । अनेकावतारं निजाज्ञानहारं सदा विष्णु रूपं गणेशं नताः स्मः ॥ ७ ॥ तमोयोगिनं रुद्ररूपं त्रिनेत्रं जगद्धारकं तारकं ज्ञानहेतुम् । अनेकागमैः स्वं जनं बोधयन्तं सदा शर्वरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ ८ ॥ तमस्तोमहारं जनाज्ञानहारं त्रयीवेदसारं परब्रह्मसारम् (पारम्) । मुनिज्ञानकारं विदूरे विकारं सदा ब्रध्नरुपं (ब्रह्मरूपं) गणेशं नताः स्मः ॥ ९ ॥ निजैरौषधीस्तर्पयन्तं करौघैः सुरौघान् कलाभिः सुधास्राविणीभिः । दिनेशांशुसन्तापहारं द्विजेशं शशाङ्कस्वरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ १० ॥ प्रकाशस्वरूपं नभोवायुरूपं विकारादिहेतुं कलाकालभूतम् । अनेकक्रियाऽनेकशक्तिस्वरूपं सदा शक्तिरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ ११ ॥ प्रधानस्वरूपं महत्तत्त्वरूपं धरावारिरूपं दिगीशादिरूपम् । असत्सत्स्वरूपं जगद्धेतुभूतं सदा विश्वरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ १२ ॥ त्वदीये मनः स्थापयेदङ्घ्रियुग्मे जनोविघ्नसङ्घान्न पीडां लभेत । लसत्सूर्यबिम्बे विशाले स्थितोऽयं जनो ध्वान्तबाधां (पीडां) कथं वा लभेत ॥ १३ ॥ वयं भ्रामिताः सर्वथाऽज्ञानयोगाद्लब्ध्वा तवाङ्घ्रिं बहुन् वर्षपूगान् । इदानीमवाप्तास्तवैव प्रसादात् प्रपन्नान् सदा पाहि विश्वम्भराद्य ॥ १४ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर बोले — जो अजन्मा, विकल्परहित, निराकार, अद्वितीय, निरालम्ब, अद्वैत, आनन्द से पूर्ण, सर्वोत्कृष्ट, निर्गुण, निर्विशेष, निरीह एवं परब्रह्मस्वरूप हैं; उन गणेश का हम भजन करें ॥ ३ ॥ जो तीनों गुणों से परे हैं, आदि (सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले) हैं, जो चिदानन्दस्वरूप, चिदाभासक, सर्वव्यापी, ज्ञानगम्य, मुनियों के ध्येय, आकाशस्वरूप एवं परमेश्वर हैं; उन परब्रह्मरूप गणेश का हम भजन करें ॥ ४ ॥ जो जगत् के कारण हैं, जिनका स्वरूप कारणज्ञान से परे है, जो देवताओं, सुखों और युगों के आदिकारण हैं, जो गणों के स्वामी, विश्वव्यापी, जगद्वन्द्य तथा देवेश्वर हैं; उन परब्रह्मस्वरूप गणेश का हम भजन करें ॥ ५ ॥ जो रजोगुण के योग से ब्रह्मा का रूप धारण करते हैं, वेदों के ज्ञाता हैं और सदा सृष्टिकार्य में संलग्न रहते हैं, जिनका पारमार्थिक रूप मन से अचिन्त्य है, जो जगत् की उत्पत्ति के हेतुभूत तथा समस्त विद्याओं के निधान हैं, उन ‘ब्रह्मरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ ६ ॥ जो सदा सत्त्वगुण से युक्त हैं, आनन्द से क्रीडा करते रहते हैं, देवशत्रुओं का नाश करते हैं और जगत् के रक्षण- कार्य में संलग्न रहते हैं, जो अनेक अवतार लेते रहते हैं तथा अपने भक्तों के अज्ञान का हरण करने वाले हैं; उन ‘विष्णुरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ ७ ॥ जो तमोगुण के सम्पर्क से रुद्ररूप धारण करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो जगत् के हर्ता, तारक और ज्ञान के हेतु हैं तथा अनेक आगमोक्त वचनों द्वारा अपने भक्तजनों को सदा तत्त्वज्ञानोपदेश देते रहते हैं, उन ‘शिवरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ जो अन्धकारराशि के नाशक, भक्तजनों के अज्ञान के निवारक, तीनों वेदों के सारस्वरूप, साक्षात् परब्रह्म, मुनियों को ज्ञान देने वाले, विकारों से सदा दूर रहने वाले हैं; उन ‘सूर्यरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ ९ ॥ जो अपने किरण-समूह से औषधियों को तृप्त एवं पुष्ट करते हैं, अमृतवर्षिणी कलाओं द्वारा देवसमुदाय को तृप्त किया करते हैं, सूर्य किरणों से उत्पन्न संताप को हर लेते हैं और द्विजों (ब्राह्मणों एवं नक्षत्रों) – के राजा हैं; ‘उन ‘चन्द्रस्वरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ १० ॥ जो प्रकाशस्वरूप, आकाश एवं वायुरूप, विकारों आदि के हेतुभूत, कला और कालरूप हैं, अनेक क्रियाओं की अनेकानेक शक्तियाँ जिनकी स्वरूपभूता हैं; उन ‘शक्तिरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ ११ ॥ प्रधान, महत्तत्त्व, पृथ्वी, जल और दिशा- दिक्पाल आदि जिनके स्वरूप हैं; जो सत्-असत् रूप एवं जगत् के कारणरूप हैं; उन ‘विश्वरूप’ गणेश को हम सदा नमस्कार करते हैं ॥ १२ ॥ [हे गणनाथ!] जो आपके युगल चरणों में मन लगायेगा, वह विघ्नसमूह जनित पीड़ा नहीं प्राप्त कर सकता। शोभाशाली, विशाल सूर्यमण्डल के प्रकाश में खड़ा हुआ मानव भला अन्धकारजनित क्लेश कैसे प्राप्त कर सकता है? ॥ १३ ॥ हे विश्वम्भर! हम अज्ञान के वशवर्ती होकर बहुत वर्षों तक आपके चरणकमलों को न प्राप्त कर सकने के कारण सर्वथा भटकते रहे हैं। अब आपकी ही कृपा से आपके चरणों की शरण में आ गये हैं । अतः हे आदिदेव ! आप सदा हमारी रक्षा करें ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे महामुने ! [त्रिदेवों के द्वारा ] इस प्रकार स्तुति किये जाने पर गणेशजी सन्तुष्ट हो गये और परम कृपायुक्त होकर उन्होंने उन (देवताओं) – से कहना प्रारम्भ किया — ॥ १५ ॥ भगवान् श्रीगणेशजी ने कहा — [ हे देवताओ ! ] जिसके लिये आप लोगों ने इतना क्लेश सहा है और जिसके लिये आप लोग यहाँ आये हैं, आप लोग उस वर को मुझसे माँगें; आप लोगों की इस स्तुति से मैं प्रसन्न हूँ ॥ १६ ॥ आप सब उदार आत्मावालों के द्वारा जो मेरी इस स्तोत्र द्वारा यह स्तुति की गयी, मेरी आज्ञा से यह स्तोत्र ‘स्तोत्रराज’ नाम से प्रसिद्ध होगा ॥ १७ ॥ जो बुद्धिमान् मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर भक्तियुक्त हो विशुद्ध भाव से सदा तीनों सन्ध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है; वह उत्तम पुत्र, लक्ष्मी तथा सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लेता है और अन्तकाल में परब्रह्मरूप हो जाता है ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी बोले — उन गणेशजी के ऐसे वचनों को सुनकर उन्हीं की इच्छा से रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण से उत्पन्न वे [तीनों देवता – ब्रह्मा, विष्णु और शिव ] प्रसन्नतापूर्वक उनसे बोले — ॥ १९ ॥ तीनों [ त्रिदेवों ]-ने कहा — सृष्टि और संहार करने वाले हे देवाधिदेव ! यदि आप प्रसन्न हैं तो आपके चरणकमलों में हमारी अनन्य भक्ति हो ॥ २० ॥ [इसके अतिरिक्त] हमें क्या करना चाहिये, इस विषय में भी आप हमें आज्ञा करें। हे गजानन ! हमें यही वर अभीष्ट है ॥ २१ ॥ उनके ऐसे वचन सुनकर भगवान् गजानन ने पुनः कहा, ‘हे महाभाग्यवान् [देवताओ] ! आप लोगों की मुझमें दृढ़ भक्ति होगी, जिससे आप लोग महान् संकटों को भी पार कर लेंगे। आप लोगों की प्रसिद्धि के लिये मैं आप लोगों को पृथक्-पृथक् कार्य बतलाता हूँ ॥ २२-२३ ॥ [गणेशजी ने कहा-] हे ब्रह्मन्! आप रजोगुण से समुद्भूत हुए हैं, अतः आप सृष्टिकर्ता होवें । हे विष्णो ! आप सत्त्वगुण के आश्रय और व्यापक हैं, अतः आप [सृष्टि का] पालन करें। हे हर! आप तमोगुण से समुद्भूत हैं, अतः आप संहारकार्य करें ॥ २४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — [ हे व्यासजी !] तदनन्तर गणेशजी ने मुझ ब्रह्मा को आदरपूर्वक वेद, शास्त्र, पुराण, सृष्टि करने की सामर्थ्य तथा अन्य विद्याएँ प्रदान कीं। उन भगवान् गणेश ने विष्णु को योगबल से स्वेच्छानुसार रूप धारण करने की सामर्थ्य प्रदान की ॥ २५-२६ ॥ [इसी प्रकार] भगवान् गणेश ने शिव को एकाक्षर मन्त्र, षडक्षर मन्त्र तथा सभी आगम 2 और संहार करने की शक्ति प्रदान की ॥ २७ ॥ तब मैंने उन त्रैलोक्य के स्वामी, जगद्गुरु, वरदाता भगवान् गजानन (गणेशजी ) – से दीन भाव से हाथ जोड़कर कहा —॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले — [ हे प्रभो !] जिसने शब्दशक्ति को ग्रहण न किया हो अर्थात् जिसे शब्दशक्ति का ज्ञान न हो, वह कथनीय-अकथनीय – कुछ भी नहीं कह सकता; उसी प्रकार नानाविध (अनेक प्रकार की ) सृष्टि को कभी- कहीं देखा न हो, ऐसा मैं आप विभु की आज्ञा का पालन करने में कैसे उत्साहित हो सकता हूँ अथवा आपकी आज्ञा का उल्लंघन भी कैसे कर सकता हूँ? [ इस प्रकार हे प्रभो!] मेरे लिये एक ओर कूप और दूसरी ओर बावली की स्थिति कैसे हो गयी है ? ॥ २९-३० ॥ तब भगवान् गजानन ने उस प्रकार से व्याकुल वेद- शास्त्रज्ञ ब्रह्माजी को दिव्य नेत्र प्रदान करके कहा — ॥ ३१ ॥ गजानन (गणेशजी ) – ने कहा — हे कमलोद्भव ब्रह्माजी ! मेरे शरीर के बाहर और अन्दर असंख्य ब्रह्माण्डों को भ्रमण करते हुए तुम आज देखो ॥ ३२ ॥ ब्रह्माजी बोले — [ हे व्यासजी !] तदनन्तर भगवान् गजानन के द्वारा अपनी श्वासवायु के द्वारा अपने उदर में ले जाये गये मुझ विधाता ने भी अनेक ब्रह्माण्डों को वैसे ही देखा, जैसे गूलर के वृक्ष में लगे फलों में मशकसदृश कीट हों। तब मैंने अपने परम तेज से उनमें से एक का भेदन किया और उसमें अन्तःस्थित सम्पूर्ण सृष्टि का [आश्चर्यपूर्वक] पुनः-पुनः अवलोकन किया । वहाँ मैंने दूसरे ही ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, प्रजापति, शिव, सूर्य, वायुदेव, वनों, सरिताओं, जलके स्वामी वरुण, समुद्रों, यक्षों, गन्धर्वों, अप्सराओं, किन्नरों, सर्पों, ऋषियों, गुह्यकों, साध्यों, मनुष्यों, पर्वतों, वृक्षों, उद्भिज्ज (अंकुर के रूप में निकलने वाले पौधे ) – जरायुज (गर्भाशय की झिल्ली में लिपटकर जन्म लेने वाले) – स्वेदज ( पसीने से उत्पन्न होने वाले)- अण्डज (अण्डे से उत्पन्न होने वाले) प्राणियों, पृथ्वी, सप्त पातालों, अन्य इक्कीस अव्यय लोकों, भावाभाव और स्थावर-जंगमात्मक सम्पूर्ण विश्व को देखा ॥ ३३–३८ ॥ [इसी प्रकार] जिस-जिस ब्रह्माण्ड का मैंने भेदन किया, उस-उसमें मैंने सब कुछ उसी प्रकार देखा । यह देखकर मैं पहले की ही भाँति भ्रमित हो गया; क्योंकि उन ब्रह्माण्डों का अन्त मुझे कहीं नहीं मिल पाया ॥ ३९ ॥ हे ब्रह्मन्! [उस समय आश्चर्यचकित होने के कारण] मैं न स्थिर रहने में सक्षम था, न ही कहीं जाने में; तब मैंने पद्मासन में स्थित होकर भगवान् गजानन का स्तवन किया ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले — जिनके श्रीविग्रह में स्थित ब्रह्माण्डों की गणना करना सम्भव नहीं है, ऐसे देवाधिदेव भगवान् गणेश की मैं वन्दना करता हूँ; भला, आकाशस्थित नक्षत्रों, सागरस्थित जलचरों और उसके किनारे के बालुका-कणों की गणना करने वाला कौन हो सकता है ! ॥ ४१ ॥ हे देवराजवन्दित [गणेशजी ] ! आपके चरणकमलों का दर्शनकर जो मैं भ्रम में पड़ गया था, उसके लिये मुझे लज्जा नहीं है; क्योंकि आप जैसे ज्ञाननिधि के प्रसन्न हो जाने पर मोक्ष भी तुच्छ प्रतीत होता है, फिर अन्य की तो बात ही क्या है ! ॥ ४२ ॥ हे देवेश्वर ! मैंने आपके उदर में नाना प्रकार प्राणियों और पदार्थों से समन्वित ब्रह्माण्ड समूहों को देखा। मैं यहाँ स्थिर रहने में या यहाँ से अन्यत्र बहिर्गमन करने में भी समर्थ नहीं हूँ; अतः मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य देवता की शरण में नहीं जाता हूँ ॥ ४३ ॥ [हे व्यासजी!] मेरे द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर अनन्त ऐश्वर्यसम्पन्न गजानन [ श्रीगणेशजी ] – ने खिन्न मनःस्थिति वाले मुझ [ ब्रह्मा] – को अपने नासिका- छिद्र मार्ग से बाहर निकाल दिया। मेरे अनुयायी श्रीहरि और उनके साथ स्थित तमोगुण वाले भगवान् हर (शिव) – इन दोनों को प्रभु गजानन ने अपने कर्णछिद्रों से बाहर निकाला। वे दोनों – हरि और हर उनके शरीर में सुखपूर्वक शयन कर रहे थे ॥ ४४–४६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके अन्तर्गत उपासनाखण्डमें ‘ब्रह्मस्तुति-वर्णन’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ 1. सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । (यजु० ३१ । १) 2. आगतं शिववक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजाश्रुतौ । मतं श्रीवासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते ॥ Content is available only for registered users. Please login or register गणपतिस्तवः पाठभेद श्री गणेशाय नमः ॥ ऋषिरुवाच । अजं निर्विकल्पं निराकारमेकं निरानन्दमानन्दमद्वैतपूर्णम् । परं निर्गुणं निर्विशेषं निरीहं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ १ ॥ गुणातीतमानं चिदानन्दरूपं चिदाभासकं सर्वगं ज्ञानगम्यम् । मुनिध्येयमाकाशरूपं परेशं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ २ ॥ जगत्कारणं कारणज्ञानरूपं सुरादिं सुखादिं गुणेशं गणेशम् । जगद्व्यापिनं विश्ववन्द्यं सुरेशं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ ३ ॥ रजोयोगतो ब्रह्मरूपं श्रुतिज्ञं सदा कार्यसक्तं हृदाऽचिन्त्यरूपम् । जगत्कारणं सर्वविद्यानिदानं परब्रह्मरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ ४ ॥ सदा सत्ययोग्यं मुदा क्रीडमानं सुरारीन्हरन्तं जगत्पालयन्तम् । अनेकावतारं निजाज्ञानहारं सदा विश्वरूपं गणेशं नमामः ॥ ५ ॥ तमोयोगिनं रुद्ररूपं त्रिनेत्रं जगद्धारकं तारकं ज्ञानहेतुम् । अनेकागमैः स्वं जनं बोधयन्तं सदा सर्वरूपं गणेशं नमामः ॥ ६ ॥ तमस्स्तोमहारं जनाज्ञानहारं त्रयीवेदसारं परब्रह्मसारम् । मुनिज्ञानकारं विदूरे विकारं सदा ब्रह्मरूपं गणेशं नमामः ॥ ७ ॥ निजैरोषधीस्तर्पयन्तं कराद्यैः सुरौघान्कलाभिः सुधास्राविणीभिः । दिनेशांशुसन्तापहारं द्विजेशं शशाङ्कस्वरूपं गणेशं नमामः ॥ ८ ॥ प्रकाशस्वरूपं नमो वायुरूपं विकारादिहेतुं कलाधाररूपम् । अनेकक्रियानेकशक्तिस्वरूपं सदा शक्तिरूपं गणेशं नमामः ॥ ९ ॥ प्रधानस्वरूपं महत्तत्वरूपं धराचारिरूपं दिगीशादिरूपम् । असत्सत्स्वरूपं जगद्धेतुरूपं सदा विश्वरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ १० ॥ त्वदीये मनः स्थापयेदङ्घ्रियुग्मे जनो विघ्नसङ्घादपीडां लभेत । लसत्सूर्यबिम्बे विशाले स्थितोऽयं जनो ध्वान्तपीडां कथं वा लभेत ॥ ११ ॥ वयं भ्रामिताः सर्वथाऽज्ञानयोगादलब्धास्तवाङ्घ्रिं बहून्वर्षपूगान् । इदानीमवाप्तास्तवैव प्रसादात्प्रपन्नान्सदा पाहि विश्वम्भराद्य ॥ १२ ॥ एवं स्तुतो गणेशस्तु सन्तुष्टोऽभून्महामुने । कृपया परयोपेतोऽभिधातुमुपचक्रमे ॥ १३ ॥ ॥ इति श्रीमद्-गर्ग ऋषिकृतो गणपतिस्तवः सम्पूर्णः ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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