श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-12
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बारहवाँ अध्याय
ब्रह्मा, विष्णु और शिव को भगवान् गणेश के दर्शन
अथः द्वादशोऽध्यायः
गजाननदर्शनं

सूतजी बोले — [ हे शौनकजी !] ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए इन वचनों को सुनकर महान् हर्ष से युक्त मुनि व्यासजी ने उनसे पुनः पूछा ॥ १ ॥

व्यासजी ने कहा — [ हे ब्रह्मन् !] आपकी अमृतमयी वाणी का पान करके मैंने बोध प्राप्त कर लिया है अर्थात् मेरा भ्रम दूर हो गया है। हे पिता ! मन्त्रराज को सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ मैं इस इस मन्त्र का किसने जप किया था और उसे गजानन गणेशजी से कैसे सिद्धि प्राप्त हुई थी ? मेरे इस संशय का उन्मूलन कीजिये, आपके अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहीं है ॥ ३ ॥

भृगुजी बोले — हे नृपश्रेष्ठ ! मुनि के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्माजी ने कृपापूर्वक उन विनीत व्यासजी से इस प्रकार कहा — ॥ ४ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् ! तुम्हें साधुवाद है, साधुवाद है, जो कि तुमने इस समय यह प्रश्न पूछा है । तुम पुण्यवान् हो; क्योंकि पुण्यहीन मनुष्यों में कथा- श्रवण के प्रति प्रेम ही नहीं होता ॥ ५ ॥ इस उपासनामार्ग का मैं तुम्हें भलीभाँति बोध कराता हूँ; क्योंकि स्नेहपात्र और अत्यन्त प्रज्ञावान् शिष्य से कुछ भी गोप्य नहीं रखना चाहिये ॥ ६ ॥ मैंने तुमसे कहा था कि ये गणनायक गणेशजी ओंकारस्वरूप हैं, इसीलिये इन विनायक की सम्पूर्ण कार्यों में [प्रथम] पूजा होती है ॥ ७ ॥ निर्विघ्नता की कामना करने वालों को इनका पूजन अवश्य करना चाहिये, अन्यथा वे कार्य में विघ्न कर देते हैं। समस्त आगम-ग्रन्थों में इनके ओंकारबीज से युक्त और ओंकार-पल्लव से समन्वित मन्त्र कहे गये हैं । इनसे (ओंकारबीज से) अतिरिक्त जो मन्त्र हैं, वे निष्फल होते हैं। इस प्रकार सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त के रूप में सब कुछ गणनायक गणेशजी ही हैं ॥ ८-९ ॥ इस प्रकार सभी देवता, सिद्ध, मुनि, राक्षस, किन्नर, गन्धर्व, चारण, नाग, यक्ष, गुह्यक (यक्ष-जैसी अर्धदेवों की श्रेणी) और मनुष्य तथा सम्पूर्ण जड़-चेतन प्राणी गणेशजी के उपासक हैं; अतएव गणेशजी से श्रेष्ठ कोई नहीं है ॥ १०१/२

हे द्विजश्रेष्ठ! अब मैं एक प्राचीन कथा कहूँगा, जिसमें बताया गया है कि कैसे इस मन्त्रराज के जप से गजानन गणेशजी प्रसन्न हुए ॥ १११/२

किसी समय दैवयोग से प्रलयकाल उपस्थित हो गया। उस समय वायुवेग से पर्वत छिन्न-भिन्न होकर चारों दिशाओं में गिर पड़े। बारहों सूर्य महान् जलराशि का शोषण करके तपने लगे । ज्वालामालाओं से युक्त महान् अग्नि सम्पूर्ण सृष्टि को जलाने लगी । [ तत्पश्चात् ] महामेघ संवर्तक चारों ओर वर्षा करने लगे। उनकी वह वर्षा हाथी की सूँड़ से गिरती हुई जलधारा के समान थी । समुद्र और नदियाँ भी अपनी सीमा का उल्लंघन कर रहे थे। इस प्रकार ब्रह्मा से लेकर स्थावर आदि सभी [पदार्थ] विनष्ट हो गये ॥ १२–१५१/२

इस प्रकार प्रकृति की विकाररूपा मायामय सृष्टि के नष्ट हो जाने पर भगवान् गजानन गणेशजी अणु से भी अणुतर (सूक्ष्म) रूप धारण करके कहीं स्थित हो गये। तत्पश्चात् बहुत समय बीत जाने पर [सब ओर] व्याप्त गहन अन्धकार में से उस नादयुक्त एकाक्षर ब्रह्म (गं) – का आविर्भाव हुआ। अपने आनन्दमय स्वरूप में स्थित वही वैकारिक ब्रह्म अर्थात् नादविशिष्ट अक्षरब्रह्म पुनः मायाशक्ति को स्वीकार करके गजानन स्वरूप में प्रकट हो गया। तदनन्तर उन (गजानन) – से ही सत्त्व, रज और तमोगुण उत्पन्न हुए ॥ १६–१९ ॥

तत्पश्चात् उनसे ही विष्णु, ब्रह्मा और शिव — ये तीनों भी उत्पन्न हुए और उन (गणेश) – की माया से ही स्थावर-जंगमात्मक त्रैलोक्य की रचना हुई ॥ २० ॥ तदुपरान्त उनकी माया से भ्रान्त वे तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) अपने उस जन्म देने वाले (जनक)-को देखने और उससे यह पूछने के लिये कि हमें ‘कौन-सा कार्य करना चाहिये’, उत्सुकतापूर्वक भटकने लगे। हे मुने! इस जिज्ञासा से उन्होंने पहले ऊपर की ओर जाकर इक्कीस स्वर्ग (आदि) – लोकों को देखा और तत्पश्चात् अन्तरिक्ष में तिरछे जाकर फिर पाताल में गये। तब भी परमात्मा (गणेशजी) -का दर्शन न होने पर उन्होंने अत्यन्त घोर तपस्या की ॥ २१-२३ ॥

वे निराहार रहते हुए दिव्य सहस्र वर्षों तक जप-परायण रहे। [उस श्रम से] थककर और उदास होकर वे पुनः पृथ्वी पर आ गये ॥ २४ ॥ पृथ्वीपर [उन परमात्मा की] खोज करते हुए वे [परमात्मा के] दर्शनार्थ वनों, उपवनों, सरिताओं, सागरों, पर्वतों, शिखरों और गृहों में गये ॥ २५ ॥ तदनन्तर उन्होंने अपने समक्ष एक महान् जलाशय को देखा, जो अनेक प्रकार के जलचर प्राणियों, वृक्षों और अनेक प्रकार के पक्षियों से समन्वित था ॥ २६ ॥ [वह सरोवर] कमलों से आच्छादित तथा कमलनाल खाते हुए बगुलों, चक्रवाकों, हंसों और बत्तखों के कलरव से निनादित था ॥ २७ ॥ हे मुने! अनेक प्रकार की तरंगों से युक्त, मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुस्तर, मछलियों और मगरमच्छों से भरे हुए उस महान् जलाशय में स्नान करके और उसके किनारे विश्राम करके जब वे सरोवर को पारकर आगे बढ़े तो उन्होंने प्रलयकालीन अग्नि के सदृश, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान, अत्यन्त कठिनाई से देखे जा सकने वाले तेजःपुंज को अपने समक्ष देखा । उस तेज के प्रभाव से उन्हें दिखायी देना बन्द हो गया और वे अत्यधिक चिन्ता में पड़ गये ॥ २८-३० ॥

तब वे आकाशमार्ग से चलकर उस तेजःपुंज के मध्य से बाहर निकल गये । उस समय वे भूख-प्यास और परिश्रम से थके होने के कारण बार-बार [गहरी] साँस ले रहे थे। [उस समय] वे अपनी ही निन्दा कर रहे थे और अपने को ही कोस रहे थे तथा भय के कारण व्याकुल थे। तब अत्यन्त करुणामय, लोकाध्यक्ष, अखिलार्थविद् गणेशजी ने उन्हें मन और नेत्रों को आनन्दित करने वाले अपने रूप का दर्शन कराया ॥ ३१–३२१/२

पादाङ्गुलीनखश्रीर्भिजितरक्ताब्जकेसरम् ॥
रक्ताम्बरप्रभावात्तु जितसन्ध्यार्कमण्डलम् ।
कटिसूत्रप्रभाजालैर्जितहेमाद्रिशेखरम् ॥
खङ्गखेटधनुःशक्तिशोभि चारूचतुर्भुजम् ।
सुवासं पूर्णिमाचन्द्रजितकान्ति मुखाम्बुजम् ॥
अहर्निशं प्रभायुक्तं पद्मचारुसुलोचनम् ।
अनेकसूर्यशोभाजिन्मुकुटभ्राजिमस्तकम् ॥
नानाताराङ्कितव्योमकान्तिजिदुत्तरीयकम् ।
वराहदंष्ट्राशोभाजिदेकदन्तविराजितम् ॥
ऐरावतादि (दिक्पाल)दिङ्नागभयकारि सुपुष्करम् ।

उनके पैर की अँगुलियों के नखों की शोभा ने लाल कमल के केसर की शोभा को जीत लिया था । उनके रक्तवर्ण के वस्त्रों की प्रभा ने सन्ध्याकालीन सूर्यमण्डल की आभा को जीत लिया था। उनके कटिप्रदेश में बँधी करधनी की प्रभा ने सुमेरुपर्वत के शिखरों की प्रभा को फीका कर दिया था ॥ ३३–३४ ॥ उनके चारों सुन्दर हाथों में खड्ग, खेट, धनुष और शक्ति सुशोभित हो रहे थे। उनकी नासिका अत्यन्त सुन्दर थी और उनके मुखकमल की कान्ति ने पूर्णिमा के चन्द्रमा की कान्ति को जीत लिया था । कमलसदृश उनके सुन्दर नेत्र दिन-रात प्रभा से युक्त रहते थे। अनेक सूर्यों की शोभा को जीत लेने वाले मुकुट से उनका मस्तक देदीप्यमान था ॥ ३५-३६ ॥ उनके उत्तरीय की कान्ति अनेक नक्षत्रों से समन्वित गगनमण्डल की शोभा को भी जीत ले रही थी । [इसी प्रकार] उनके एक दन्त की शोभा भगवान् वराह की दंष्ट्रा की शोभा को जीत रही थी । हे मुने! उनकी सुन्दर सूँड़ ऐरावतादि दिग्गजों को भी भयभीत कर रही थी ॥ ३७१/३

उन देव गणेश  को सहसा देखते ही उन [ब्रह्मादि] देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उनके कमलवत् चरणों का स्पर्श करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘गजाननदर्शन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

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