August 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-11 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ग्यारहवाँ अध्याय ब्रह्माजी का व्यासजी को गणेशजी के मन्त्र के अनुष्ठान की विधि बताना अथः एकादशोऽध्यायः मन्त्रकथनं भृगुजी बोले — [हे राजन्!] चतुर्मुख ब्रह्माजी इसके अनन्तर [व्यासजी द्वारा ] किये गये प्रश्न का समाधान करने की इच्छा से बोले — [ हे व्यासजी ! ] मैं गणेशजी के मन्त्रों का अनेक प्रकार से विचारकर तुमसे सब कुछ क्रम से बता रहा हूँ ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने! शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाले महात्मा गणेशजी के अनन्त मन्त्र हैं, मैं उनकी उपासना-विधि तुमसे कहता हूँ ॥ २ ॥ हे मुने! आगमशास्त्र में गणेशजी के सात करोड़ महामन्त्र विद्यमान हैं, उनका रहस्य तो शिवजी ही जानते हैं और कुछ-कुछ मैं जानता हूँ ॥ ३ ॥ उनमें से षडक्षर 1 और एकाक्षर 2 – ये दोनों मन्त्र श्रेष्ठ हैं, जिनके स्मरणमात्र से सभी सिद्धियाँ करगत हो जाती हैं ॥ ४ ॥ हे मुने! जिन [गणेशजी ] – की उपासना से [मनुष्य ] जीवन्मुक्त, धन्य, पूज्य और देवताओं से भी नमस्कार करने योग्य हो जाते हैं। जिन [गणेशजी ] -की उपासना से सिद्धियाँ उन [उपासकों] का दास्य करती हैं, जो [मनुष्य] गणेशजी की श्रद्धाभाव से समन्वित हो भक्ति करते हैं, वे लोग सर्वज्ञ, अनेक प्रकार के रूप धारण कर सकने वाले और इच्छानुसार विहार करने वाले हो जाते हैं। जिन लोगों में लेशमात्र भी [गणेशजी की ] भक्ति नहीं है, उनका तो जन्म ही निरर्थक है ॥ ५-७ ॥ जो लोग गणेशजी की भक्ति से विमुख हैं, उनका तो मुख भी नहीं देखना चाहिये। उनके दर्शनमात्र से पग- पग पर विघ्न उपस्थित होते हैं ॥ ८ ॥ उनके उपासक के दर्शन से विघ्न शान्त हो जाते हैं, स्थावर-जंगम – सभी प्राणी उसे नमस्कार करते हैं ॥ ९ ॥ अतः मैं तुम्हें [गणेशजी का] शुभ एकाक्षर मन्त्र बताता हूँ, उसके अनुष्ठानमात्र से अपना वांछित सम्यक् रूप से प्राप्त करोगे ॥ १० ॥ भगवान् शंकर ने जिस प्रकार मुझसे कहा था, उस अनुष्ठान को मैं [वैसे ही] तुमसे कहता हूँ। [सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता] मनुष्य स्नान करके पवित्र होकर धुले हुए वस्त्र धारण करे ॥ ११ ॥ [तदनन्तर] बुद्धिमान् साधक अपने कुश के आसन पर मृगचर्म बिछाकर और उस पर वस्त्र बिछाकर, उसके ऊपर स्थित हो भूतशुद्धि और प्राणप्रतिष्ठा करे ॥ १२ ॥ उसके बाद सावधानीपूर्वक अन्तर्मातृकान्यास और बहिर्मातृकान्यास करके हृदय में मूलमन्त्र का जप करते हुए प्राणायाम करे, तदुपरान्त आगम में कहे गये मन्त्रों से यथाविधि सन्ध्या-उपासना करे और स्थिर मन से आपाद-मस्तक देवता [गणेशजी ] – का ध्यान करके समाहित चित्त से मानसिक उपचारों से उनका पूजन करे। तदनन्तर पुरश्चरण पद्धति से यथाशक्ति उनके मन्त्र का जप करे ॥ १३–१५ ॥ जबतक गजानन गणेशजी वर देने के लिये अनुकूल नहीं हो जाते और अपने स्वरूप का दर्शन नहीं कराते, तबतक जप-परायण ही रहे ॥ १६ ॥ भृगुजी बोले — मुनि व्यास से ऐसा कहकर ब्रह्माजी ने शुभ दिन देखकर भ्रमितचित्त मुनिश्रेष्ठ (व्यास) -को गणेशजी के एकाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया ॥ १७१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — जब तुम करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान उन भगवान् गणेशजी को वर देने के लिये आया हुआ देखो तो अपने चित्त को स्थिर करके कहना — हे गजानन (गणेशजी) ! आप मेरे हृदय में स्थिर होकर नित्य निवास करें ॥ १८-१९ ॥ तब वे तुमसे ‘वर माँगो’ – ऐसा कहेंगे और तुमको वरदान देंगे, इसमें सन्देह नहीं है। उन देव गणेश के हृदय में स्थित हो जाने पर तुम दिव्य ज्ञान की प्राप्ति करोगे ॥ २० ॥ हे वत्स! तब तुम भूत, भविष्य और वर्तमान का अशेष (सम्पूर्ण) ज्ञान प्राप्त कर लोगे और इस दृढ़ भ्रान्ति को दूरकर अनेक ग्रन्थों की रचना करोगे ॥ २१ ॥ व्यासजी बोले — हे पिता ! आपके द्वारा किये गये उपदेश से मेरी भ्रान्ति चली गयी । हे पितामह ! [ अब ] मैं आपकी आज्ञा के अनुसार अनुष्ठान करूँगा ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे विभो ! अब तुम गजानन गणेशजी का स्मरण करके व्यग्रता के कारणों से रहित, एकान्त निर्जन देश में अनुष्ठान करो ॥ २३ ॥ नास्तिक (अनीश्वरवादी), [ईश्वर और वेदकी] निन्दा करने वाले, निर्दयी, अनाचारी, दुष्ट और मूर्ख — इन जैसों को इस मन्त्रराज का उपदेश नहीं करना; परंतु शरणागत, दृढ़ भक्तिवाले, श्रद्धावान्, विनयशील, वेदवादी, [मन्त्रप्राप्ति की] आकांक्षा वाले, दयालु और शास्त्रज्ञ के समक्ष इसे प्रकट करना । मन्त्रराज का वक्ता यदि इसे अनधिकारी के सम्मुख प्रकाशित करता है तो वह [ अपने साथ-साथ] अपनी दस पहले की और दस बाद की पीढ़ियों को भी नरक की प्राप्ति कराता हैं ॥ २४-२६ ॥ जो इसका भक्तिपूर्वक जप करता है, वह इच्छित फल की प्राप्ति करता है और पुत्र-पौत्र तथा धन-धान्य से सम्पन्न हो जाता है। वह एकदन्त (गणेशजी ) – के प्रभाव से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति करके इस लोक में सम्पूर्ण भोगों को भोगकर अन्त में मोक्ष की प्राप्ति करता है ॥ २७-२८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘मन्त्रकथन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ 1. वक्रतुण्डाय हुं । 2. गं । Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe