श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-10
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
दसवाँ अध्याय
गणेश पूजन न करने से व्यासजी का विघ्नों से अभिभूत होना और ब्रह्माजी का उन्हें गणेशाराधन का उपदेश देना
अथः दशमोऽध्यायः
गणेशमङ्गलाभावे व्यासस्य भ्रान्तिः, ब्रह्मदेवसमीपगमनञ्च

भृगुजी बोले — [भगवान् ] नारायण के अंश से उत्पन्न, पराशर के पुत्र महामुनि वेदव्यासजी भूत और भविष्य के ज्ञाता तथा वेद एवं शास्त्र के अर्थ को तत्त्वपूर्वक जानने वाले थे। उन्होंने चार भागों में वेद का विभाजन करके उसके ज्ञान एवं प्रयोजन की सिद्धि के लिये विद्या के मद से गर्वयुक्त होकर पुराणों की रचना करना आरम्भ किया ॥ १-२ ॥ परंतु ग्रन्थारम्भ के पूर्व उन्होंने उसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिये साधनरूप में न तो मंगलाचरण किया, न गणेशजी को नमस्कार किया और न ही उनकी कहीं स्तुति ही की। तब तो नित्य, नैमित्तिक, काम्य, श्रौत और स्मार्त कर्मों के व्याख्याता; वेद-शास्त्रों के सर्वज्ञ विद्वान् होते हुए भी उन वेदव्यासजी को लौकिक तथा अलौकिक — दोनों प्रकार के विषयों में भ्रान्ति ही बनी रहने लगी। विघ्नों से अभिभूत होने के कारण उन्हें उन विषयों के वास्तविक अर्थ का स्मरण नहीं होता था ॥ ३-५ ॥ जैसे औषधियों और मन्त्रों के प्रयोग से किसी श्रेष्ठ नाग को सामर्थ्यहीन कर दिया गया हो, वैसे ही वे स्वयं को स्तम्भित-सा अनुभव कर रहे थे और वे इसके हेतु तक भी नहीं पहुँच पा रहे थे अर्थात् इस बुद्धि- स्तम्भन का कारण भी नहीं समझ पा रहे थे ॥ ६ ॥

तब आश्चर्याभिभूत और लज्जित अन्तःकरणवाले वे पराशरपुत्र व्यासमुनि ब्रह्माजी से इसका कारण पूछने के लिये आदरपूर्वक सत्यलोक को गये ॥ ७ ॥ वहाँ देवगणों, देवर्षियों और कमल के आसन पर विराजमान ब्रह्माजी को नमस्कार कर वे ब्रह्माजी द्वारा सत्कृत होकर उनके द्वारा दिये गये मंगलमय आसन पर आसीन हुए ॥ ८ ॥ [ तत्पश्चात्] पराशरपुत्र महामुनि वेदव्यासजी ने आदरपूर्वक झुककर अपने हाथों से उनके युगल चरणों का स्पर्श किया और ब्रह्माजी से पूछना प्रारम्भ किया — ॥ ९ ॥

व्यासजी बोले — हे ब्रह्मन्! दैववश मेरे साथ यह कैसी अद्भुत बाधा उपस्थित हो रही है, कलियुग में सभी लोग ज्ञान एवं आचार से रहित, कर्मजड़, स्तब्ध, नास्तिक और वेदनिन्दक होने वाले हैं — ऐसा देखकर ‘मेरे वाक्यों से लोग विधि और निषेध का ज्ञान प्राप्त करेंगे’; यह सोचकर मैंने वेदों के अर्थभूत पुराणों की रचना करने में अपनी बुद्धि को नियोजित किया, परंतु मेरा ही ज्ञान चला गया और मैं मदोन्मत्त की भाँति भ्रान्त हो गया । मैं इसका कोई कारण नहीं देखता हूँ, मुझमें कोई स्फूर्ति भी नहीं हो रही है। उस कारण को जानने और पुनः स्फूर्ति प्राप्ति का उपाय पूछने के लिये मैं आपके पास आया हूँ । हे चतुर्मुख ब्रह्माजी ! मैं आपके अतिरिक्त किसकी शरण में जाऊँ ? आप सर्वज्ञ हैं, सर्वकर्ता हैं; मेरी भ्रान्ति का निवारण करें। हे ब्रह्मन्! मैं नित्य आचारपरायण, सर्वज्ञ और नारायणस्वरूप होते हुए भी भ्रान्त हूँ; मेरी इस भ्रान्ति का कारण बताइये ॥ १०–१५ ॥

सूतजी बोले — इस प्रकार उनके वचन को सुनकर और विचार कर कमलासन ब्रह्माजी कुछ विस्मित से हो गये और विनम्रतापूर्वक झुके हुए उन मुनि से हँसते हुए बोले — ॥ १६ ॥

ब्रह्माजी बोले — आश्चर्य की बात है ! फिर भी मैं तुमसे कहता हूँ कि कर्मों की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है, अतः सत्कर्म या दुष्कर्म को भलीभाँति विचार करना चाहिये ॥ १७ ॥ यदि इसके विपरीत कोई व्यक्ति कार्य करता है, तो उसका फल भी विपरीत ही होगा। कार्य चाहे बड़े हों या छोटे; बुद्धिमान् मनुष्य को उन्हें बुद्धि द्वारा, युक्तिपूर्वक और विनम्रता से सम्पन्न करना चाहिये न कि गर्व और मत्सर (ईर्ष्या)-पूर्वक। पक्षिराज गरुड़ को गर्व के कारण ही [भगवान् विष्णु का] वाहनत्व प्राप्त हुआ ॥ १८-१९ ॥ ईर्ष्या के कारण ही अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने सम्पूर्ण कुल को नष्ट कर दिया। पूर्वकाल में परशुराम ने भी ईर्ष्या ही कारण क्षत्रियों का संहार किया था ॥ २० ॥

जो आदि-अन्त से रहित, जगत्कर्ता, जगन्मय, जगत् को धारण करने वाले, जगत् का संहार करने वाले, सत्-असत्रूप, अव्यक्त और अविनाशी देव हैं। जो सदा कर्तुं, अकर्तुं तथा अन्यथाकर्तु में समर्थ हैं; इन्द्रादि प्रमुख देवतागण, मैं, विष्णु और रुद्र, सूर्य, अग्नि, वरुण आदि जिनकी आज्ञा के वशवर्ती हैं; जो भक्तों के विघ्नों का हरण करने वाले और उनसे अतिरिक्त (अभक्तों) – के कार्यों में विघ्न करने वाले हैं; उन गणेशजी के प्रति तुमने अपने विद्याबल का आश्रय लेकर गर्व किया, सर्वज्ञता के अभिमान से तुमने उनका पूजन नहीं किया । हे निष्पाप व्यासजी ! तुमने [पुराणप्रणयन के] आरम्भ में गणेशजी का स्मरण अथवा न्यास नहीं किया, इसीलिये तुम्हें भ्रान्ति हो रही है ॥ २१–२५ ॥

श्रौत, स्मार्त, लौकिक आदि सभी कार्यों के आरम्भ में, गृह आदि में प्रवेश करते समय या यात्रादि के लिये निर्गमन करते समय स्मरण न करने पर जो विघ्न करते हैं; वेद-शास्त्र के तत्त्वदर्शी विद्वान् जिन्हें परमानन्द कहते हैं, परम गति कहते हैं, परम ब्रह्म कहते हैं; हे वत्स! उन गजानन गणेशजी की शरण में आदरपूर्वक जाओ ॥ २६-२७ ॥ वे भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हारी इच्छा को पूरा करेंगे, नहीं तो हजारों वर्षों में भी तुम अपनी इच्छा को पूरा नहीं कर पाओगे ॥ २८ ॥

व्यासजी बोले — हे चतुर्मुख ब्रह्माजी ! ये गणेश कौन हैं ? इनका रूप कैसा है ? उन्हें कैसे जाना जाता है ? पूर्वकाल में ये किसपर प्रसन्न हुए थे ? ॥ २९ ॥ इनके कितने अवतार हुए हैं और उन्होंने क्या-क्या कार्य किये हैं ? पूर्वकाल में किसने इनका पूजन किया था और किस काल में इनका स्मरण किया गया था ? ॥ ३० ॥ हे करुणानिधि प्रपितामह! मुझ विक्षिप्त चित्तवाले प्रश्नकर्ता को यह सब सम्यक् रूप से विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ३१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके अन्तर्गत उपासनाखण्डमें ‘व्यासप्रश्नवर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

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