August 14, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-03 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तीसरा अध्याय राजा सोमकान्त का राजकुमार हेमकण्ठ को सदाचार और राजनीति की शिक्षा देना अथः तृतीयोऽध्यायः सोमकान्तस्य पुत्रेभ्य उपदेशः, आचारादि निरूपणम् सूतजी बोले — तत्पश्चात् राजा ने उठकर पुत्र को दाहिने हाथ से पकड़कर राजमहलके अग्रभाग में [स्थित उस कक्ष में] प्रवेश किया, जहाँ वे सर्वदा मन्त्रणा करते थे; जहाँ बहुत-से रत्नों से युक्त, मोती और मूँगे से जड़ा हुआ स्वर्णनिर्मित दिव्य सिंहासन इन्द्रासन की भाँति शोभायमान हो रहा था ॥ १-२ ॥ वहाँ आसीन होने पर वे दोनों – पिता-पुत्र दो होने पर भी प्रत्येक रत्न में प्रतिबिम्बित होने से अनेक दीख रहे थे, मानो वे जनसमुदाय से आवृत ( घिरे ) हों ॥ ३ ॥ अपने कुल की कीर्ति के विस्तार के लिये राजा ने कृपापूर्वक पुत्र से सर्वप्रथम आचार, तदनन्तर अनेक प्रकार की नीतियों का वर्णन किया ॥ ४ ॥ सोमकान्त बोले — जब रात्रि एक प्रहर शेष रहे, तब पुरुष को जग जाना चाहिये । तत्पश्चात् शय्या का त्याग करके पवित्र स्थान में बैठकर गुरु का स्मरण करना चाहिये ॥ ५ ॥ तदनन्तर इष्ट देवता का चिन्तन करके उन्हें स्तुतिपूर्वक प्रणाम करे और पृथ्वी की हे जगन्मये! मेरे पादस्पर्श को क्षमा 1 करें — ऐसा कहकर प्रार्थना करे ॥ ६ ॥ [ इष्टदेवरूप पंचदेवों— श्रीगणेश, विष्णु, शिव, सूर्य और देवी की स्तुतियाँ इस प्रकार हैं — ] [ श्रीगणेश-प्रातः स्मरण – ] प्रातर्नमामि गणनाथमशेषहेतुं ब्रह्मादिदेववरदं सकलागमाढ्यम् । धर्मार्थकामफलदं जनमोक्षहेतुं वाचामगोचरमनादिमनन्तरूपम् ॥ ७ ॥ मैं गणों के स्वामी श्रीगणेशजी को प्रातः नमस्कार करता हूँ; जो सम्पूर्ण कारणों के कारण, ब्रह्मादि देवताओं को वर देने वाले, सम्पूर्ण आगमों के ज्ञाता, धर्म-अर्थ और कामरूपी फल देने वाले, मुमुक्षुजनों को मोक्ष देने वाले, वाणी से अनिर्वचनीय तथा अनादि और अनन्त रूपवाले हैं ॥ ७ ॥ [ श्रीविष्णु-प्रातःस्मरण – ] प्रातर्नमामिकमलापतिमुग्रवीर्यं नानावतारनिरतं निजरक्षणाय । क्षीराब्धिवासममराधिपबन्धुमीशं पापापहं रिपुहरं भव मुक्तिहेतुम् ॥ ८ ॥ मैं उग्र पराक्रमवाले लक्ष्मीपति श्रीविष्णु को प्रातः नमस्कार करता हूँ; जो अपने भक्तजनों के रक्षण के लिये अनेक अवतार लेने वाले, क्षीरसागर में निवास करने वाले, देवताओं के अधिपति इन्द्र के अनुज, नियन्ता, पापों को दूर करने वाले, शत्रुओं का नाश करने वाले और संसार से मुक्ति के हेतु हैं ॥ ८ ॥ [ श्रीशिव-प्रातःस्मरण – ] प्रातर्नमामि गिरिजापतिमिन्दुमौलिं व्याघ्राजिनांवृतमुदस्तदयंमनोजे । नारायणेन्द्रवरदं सुरसिद्धजुष्टं सर्पां स्त्रिशूलडमरूदधतं पुरारिम् ॥ ९ ॥ मैं चन्द्रमा को [मुकुटरूप में] सिर पर धारण करने वाले गिरिराजनन्दिनी पार्वती के पति त्रिपुरारि भगवान् शिव को प्रातः नमस्कार करता हूँ; जो बाघम्बर को [कटिप्रदेश में] लपेटे रहने वाले, कामदेव को भस्म करने में दयारहित, नारायण और इन्द्र को वर देने वाले, देवताओं और सिद्धों से सेवित तथा त्रिशूल- डमरू एवं सर्पों को धारण करने वाले हैं ॥ ९ ॥ [ श्रीसूर्य-प्रातः स्मरण – ] प्रातर्नमामि दिननाथमघापहारं गाढान्धकारहरमुत्तमलोकवन्द्यम् । वेदत्रयात्मकमुदस्तसुरारिमायं ज्ञानैकहेतुमुरुशक्तिमुदारभावम् ॥ १० ॥ मैं पापों का हरण करने वाले दिन के अधिपति भगवान् सूर्यदेव को प्रातः नमस्कार करता हूँ; जो गहन अन्धकार का हरण करने वाले, श्रेष्ठ जनों द्वारा वन्दित, वेदत्रयीस्वरूप, देवशत्रुओं की माया का नाश करने वाले, ज्ञान के एकमात्र हेतु, अमितशक्ति और उदार भाव वाले हैं ॥ १० ॥ [ देवी- प्रातः स्मरण – ] प्रातर्नमामि गिरिजां भवभूतिहेतुं संसारसिन्धु परपारकरीं त्रिनेत्राम् । तत्त्वादिकारणमुदस्तसुरारिमायां मायामयीं सुरमुनीन्द्रनुतां सुरेशीम् ॥ ११ ॥ मैं लौकिक ऐश्वर्य की कारणरूपा गिरिराजनन्दिनी सुरेश्वरी भगवती पार्वती को प्रातः नमस्कार करता हूँ; जो संसाररूपी समुद्र से आत्यन्तिक रूप से पार लगाने वाली, तीन नेत्रों वाली, महत्तत्त्वादि की कारणरूपा मूलप्रकृति, देवशत्रुओं की माया का नाश करने- वाली, मायामयी और देवताओं तथा श्रेष्ठ मुनियों द्वारा नमस्कृत हैं ॥ ११ ॥ इसी प्रकार अन्य देवताओं और मुनियों का स्मरण करके तथा मानसिक उपचारों से पूजन करके क्षमा- प्रार्थना करे ॥ १२ ॥ तत्पश्चात् ब्राह्मण स्वच्छ सफेद मिट्टी, क्षत्रिय लाल मिट्टी और वैश्य – शूद्र काली मिट्टी एवं जलपात्र लेकर गाँव के नैर्ऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम दिशा) -में जायँ । नदी के किनारे, ऊसर और दीमक की बाँबी तथा ब्राह्मण के घर की मिट्टी कभी न खोदे ॥ १३-१४ ॥ तदनन्तर धरतीको घास-फूस आदि से ढककर दिनमें उत्तराभिमुख और रात्रि में दक्षिण की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्यागकर पहले तृण-काष्ठादि से मनुष्य पुरीषेन्द्रिय को स्वच्छकर तत्पश्चात् मिट्टी और जल से पाँच बार उसका प्रक्षालन करे ॥ १५-१६ ॥ तदनन्तर बायें हाथ को दस बार, दोनों हाथों को सात बार, मूत्रेन्द्रिय को एक बार और पुनः बायें हाथ को तीन बार धोना चाहिये ॥ १७ ॥ मूत्रविसर्जन करने पर दोनों हाथों को सदा दो बार और दोनों पैरों को एक बार धोना चाहिये। यह शौचविधि गृहस्थों के लिये ही कही गयी है ॥ १८ ॥ ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले को इसका दुगुना, वानप्रस्थी को तिगुना और संन्यासी को चार गुना शुद्धि करनी चाहिये। रात्रि में सबको इसकी आधी ही शुद्धि मौन रहते हुए करनी चाहिये ॥ १९ ॥ स्त्री और शूद्र को [ उपर्युक्त शुद्धि] – की आधी शुद्धि दिन में और चौथाई शुद्धि रात्रि में करने का विधान है। शुद्धि के पश्चात् दूधवाले या काँटेदार वृक्ष की लकड़ी (दातून) को [उस वृक्ष से] इस प्रकार प्रार्थनापूर्वक लेकर दाँत और जीभ को साफ करे — हे वनस्पते ! तुम मुझे बल, ओज, यश, तेज, पशु, बुद्धि, धन, मेधा (धारणाशक्ति), ब्रह्मज्ञान प्रदान करो ॥ २०-२११/२ ॥ तदनन्तर पहले शीतल जल से मल का हरण करने वाला स्नान करे, फिर अपने गृह्यसूत्र में कहे गये मन्त्रों से स्नान करने के बाद सन्ध्योपासना करे। तत्पश्चात् जप, हवन, स्वाध्याय, तर्पण और देवपूजन करे। तदनन्तर बलिवैश्वदेव, अतिथि- सत्कार और ब्राह्मणावलोकन के उपरान्त स्वयं भोजन कर पुराण का श्रवण और दान करे, परनिन्दा से सदा दूर रहे ॥ २२–२४ ॥ धन, प्राण तथा अमृतरूपी (सहानुभूतिपूर्ण) वचनों से दूसरों का उपकार करे, कभी किसी का अपकार न करे और न ही आत्मप्रशंसा करे। गुरुद्रोह, वेदनिन्दा, नास्तिकता का भाव, पापी की सेवा, निषिद्ध पदार्थों का भक्षण और परस्त्रीगमन न करे ॥ २५-२६ ॥ अपनी पत्नी का परित्याग न करे और ऋतुकाल में सहवास करे। माता-पिता, गुरु और गाय की सदा सेवा- शुश्रूषा करे ॥ २७ ॥ दीनों, अन्धों और कृपणों (जो दयाके पात्र हैं) – को वस्त्रसहित अन्न प्रदान करे। प्राणों के संकट में आ जाने पर भी कभी सत्य का त्याग न करे। जिनपर ईश्वर की कृपा है, ऐसे साधुजनों का पालन करे ॥ २८१/२ ॥ अपराधके अनुसार धर्मशास्त्रों का विशेष रूप से अवलोकन कर या विद्वानों से पूछकर नीतिज्ञ [राजा] – को दण्ड देना चाहिये। जो विश्वसनीय न हो, उसपर कभी भी विश्वास न करे। समृद्धि की इच्छा वाला राजा विश्वस्त व्यक्ति पर भी अत्यन्त विश्वास न करे । जिससे एक बार वैर हो गया हो, वह यदि पुनः विश्वस्त बन गया हो, तो उसपर तो कभी भी विश्वास न करे ॥ २९-३१ ॥ षड्गुणों 2 (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय) — का प्रयोग करके राजा अपने राष्ट्र का सम्वर्धन करे तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान करे, अन्यथा राष्ट्र क्षीण होने लगता है ॥ ३२ ॥ शत्रु के व्याकुल अर्थात् संकटग्रस्त होने पर उसपर चढ़ाई करना अधर्म कहा जाता है। राजा को चारदृष्टि (गुप्तचररूपी नेत्रों वाला), दूतवक्त्र (दूतरूपी मुख वाला) और उद्यद्दण्ड (उठे हुए दण्ड वाला) होना चाहिये। अर्थात् राजा गुप्तचर के नेत्रों और दूत के मुख से सूचनाओं को प्राप्त करे और तदनुसार सेना को तैयार रखे ॥ ३३ ॥ दण्ड के ही भय से सभी लोग अपने-अपने धर्मों में व्यवस्थित रहते हैं, अन्यथा अपने और पराये का कोई नियम ही नहीं रहेगा। यदि अधम व्यक्ति कभी निन्दा करे अथवा प्रशंसा करे तो न तो उसपर क्रोधित हो, न ही प्रसन्न; क्योंकि उसकी निन्दा या स्तुति का क्या अर्थ ! ॥ ३४-३५ ॥ जिसने पूर्वकाल में अपकार किया हो, परंतु पुनः शरण में आ जाय तथा जो पूर्वकाल में धनिक रहा हो [परंतु किसी कारण निर्धन हो गया हो ], उनका सदैव परिपालन करना चाहिये ॥ ३६ ॥ [राजा को मन्त्रियों के साथ की गयी] मन्त्रणा को सदा गुप्त रखना चाहिये; क्योंकि वह (मन्त्रणा) राज्य का मूल (आधार) कही जाती है। राजा कामादि छः शत्रुओं 1 (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह तथा मत्सर)- को जीतकर तत्पश्चात् अन्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे ॥ ३७ ॥ श्रेष्ठ राजा कभी किसी की आजीविका का उच्छेद, प्रजा का विनाश, देवसम्पत्ति का हरण, वन-उपवनों का विनाश तथा देवालयों और स्मारकों का ध्वंस न करे ॥ ३८ ॥ पर्वकाल में दान दे, यश के लिये त्याग करे, मित्र के साथ छल न करे और गोपनीय विषय का कथन स्त्रियों से न करे ॥ ३९ ॥ ब्राह्मण का ऋण से और गाय का कीचड़ से सम्यक् रूप से उद्धार करे। कभी असत्य न बोले और कभी सत्य को न छोड़े ॥ ४० ॥ मन्त्रियों, प्रजा और सेवकों के चित्त का हरण करने वाला बने और सदा ब्राह्मणों एवं देवताओं को नमस्कार करे ॥ ४१ ॥ सूतजी बोले — इस प्रकार राजा ने जैसे स्वयं [परम्परा से] सुना था, वैसे ही धर्मशास्त्र के साथ आचार, नीतिशास्त्र एवं अन्य उपयोगी विषयों की शिक्षा अपने पुत्र हेमकण्ठ को देकर क्षेमंकर, रूपवान् और विद्याधीश नामक मन्त्रियों को बुलवाया और शुभ मुहूर्त देखकर [राज्याभिषेक के लिये आवश्यक] सामग्रियों का संकलन कर अनेक स्थानों से वेद के विद्वान्, यज्ञकर्म में निष्णात ब्राह्मणों, महान् राजाओं, महारानियों, अपने सुहृज्जनों, सभी वर्गों के प्रमुख लोगों और श्रेष्ठ नागरिकों को शत्रुओं का नाश करने वाले अपने पुत्र के राज्याभिषेक- समारोह का अवलोकन करने के लिये आमन्त्रित किया ॥ ४२–४५१/२ ॥ तदनन्तर गणेशजी का और इष्टदेवता का यथाविधि पूजनकर मातृकाओं का पूजन और स्वस्तिवाचन करवाकर आभ्युदयिक श्राद्धकर और ब्राह्मणों को भोजनादि से सन्तुष्टकर उन राजा सोमकान्त ने वेदमन्त्रों के उद्घोष के साथ पुत्र हेमकण्ठ का राज्याभिषेक करवाकर अपने तीन प्रमुख मन्त्रियों से इस प्रकार कहा — ॥ ४६–४८ ॥ राजा बोले — हे मन्त्रियो! मैं अपने इस पुत्र को आप लोगों के हाथ में सौंपता हूँ। ‘यह मेरा ही पुत्र है’ — इस प्रकार की बुद्धि आप लोगों की [मेरे इस पुत्र में सदा ] रहे । नीतिनिपुण आप लोगों ने जैसे मेरी आज्ञाओं का पालन किया है, वैसे ही सभी वर्गों के प्रमुखजनों के साथ मिलकर इसके भी राज्य-संचालन में सहयोग दें ॥ ४९-५० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘आचारादिनिरूपण’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ 1. समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले । विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥ 2. सन्धिं च विग्रहं चैव यानमासनमेव च । द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा ॥ (मनुस्मृति ७ । १६० ) 3. ‘कामः क्रोधस्तथा लोभो मदमोहौ च मत्सरः । (किराता० १। ९ पर मल्लिनाथकृत घण्टापथ टीका) Content is available only for registered users. 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