August 18, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-24 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चौबीसवाँ अध्याय दक्ष को राज्यप्राप्तिसूचक स्वप्न का दर्शन अथः चतुर्विंशोऽध्यायः स्वप्नकथनं राजा भीम ने पूछा — हे मुनिवर ! बुद्धिमान् राजपुत्र ने कहाँ, कैसे और किसका अनुष्ठान किया था ? हे मुने ! इसका विस्तारपूर्वक आप वर्णन कीजिये; क्योंकि मैं [इस कथा को] सुनकर भी तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ ११/२ ॥ विश्वामित्रजी बोले — उस कौण्डिन्यपुर के निकट ही एक महान् रमणीय वन था, जो विविध प्रकार के वृक्षों से युक्त; अनेक हिंस्र पशुओं से परिपूरित, नाना प्रकार के पक्षी-समूहों से समन्वित और लताजालों से सुशोभित था ॥ २-३ ॥ सत्पुरुषों के मन की भाँति निर्मल जलवाले सरोवर और वापियाँ वहाँ स्थित थे, वहीं एक प्राचीन देवालय के मध्यभाग में गजानन गणेशजी की प्रतिमा विराजमान थी ॥ ४ ॥ वहीं पर स्थित रहकर उस दक्ष ने गजानन गणेशजी को प्रसन्न करने के लिये तपस्या की। उसने मुद्गल द्वारा उपदिष्ट [गणेशजी के] एकाक्षर मन्त्र का बारह वर्षों तक जपकर उन भगवान् गणेश को प्रसन्न किया । [ इसके अनन्तर ] उसने उस गणेशप्रतिमा का स्नान, वस्त्र, सुगन्धि-द्रव्य, माला, धूप, दीप आदि उपचारों से पूजन किया; कन्द-मूल आदि भक्ष्य पदार्थों का नैवेद्य निवेदित किया । तदनन्तर उस क्षत्रियश्रेष्ठ ने दक्षिणा की मानसिक कल्पना की ॥ ५–७ ॥ हे राजन्! इस प्रकार पूजन करते हुए उसके इक्कीस दिन बीत गये । तदनन्तर [ एक दिन] प्रभातकाल में उसने इस प्रकार का स्वप्न देखा कि एक सुन्दर और पर्वतसदृश महान् गजराज सिन्दूर से आलिप्त होने के कारण अत्यन्त शोभायमान हो रहा है, उसके दोनों सुन्दर गण्डस्थलों से मद का स्राव हो रहा है। उसका मुख सुन्दर और प्रसन्नता से युक्त है। उसकी सूँड़ विशाल और एक दाँत से शोभित थी । भ्रमर-समूहों से वह समाकीर्ण था अर्थात् भौरे उसपर मँडरा रहे थे। [इस प्रकार ] वह दूसरे गजानन (गणेश)- के समान प्रतीत हो रहा था ॥ ८-१० ॥ उस गजराज ने उस (दक्ष) – के गले में रत्नमाला समर्पित की। तदनन्तर जनता ने उसे उठाकर हाथी स्कन्धदेश पर विराजित कर दिया ॥ ११ ॥ तत्पश्चात् उस गजश्रेष्ठ ने पताकाओं और ध्वजाओं से सुशोभित नगर के लिये प्रस्थान किया । स्वप्नावस्था से जाग्रत् होने पर उस दक्ष ने अपनी माता से पूछा — हे माता कमला! मेरे इस स्वप्न का अभिप्राय बताओ – गजस्कन्ध पर आरोहण शुभ होता है या अशुभ? ॥ १२-१३ ॥ कमला बोली — [ हे पुत्र !] तुम धन्य हो, तुमने गजरूपधारी भगवान् विनायक (गणेशजी ) – का दर्शन किया है। [स्वप्न में] गजारोहण का फल राज्य की प्राप्ति ही है – इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ १४ ॥ दक्ष बोला — यदि मुझे राज्य की प्राप्ति होती है, तो मैं तुम्हें एक पालकी, आजीविका के लिये बहुत-से ग्राम और मोतियों की माला दूँगा ॥ १५ ॥ गोदान और अष्टापद (सुवर्ण) – दानकर धर्म करूँगा । व्रतों और नियमों का पालन करते हुए अनेक प्रकार के अन्यान्य दान भी दूँगा ॥ १६ ॥ मुनि बोले — यह सुनकर कमला हर्षित होकर पुत्र से बोली — हे पुत्र ! तुम जब राजसिंहासन पर विराजमान होगे, तो मुझे परम आनन्द की प्राप्ति होगी ॥ १७ ॥ तुम्हारा मन सज्जनों द्वारा आचरित धर्म में रत हो, तुम सज्जनों का भरण-पोषण करने वाले होओ, तुम्हें विपुल आयुष्य की प्राप्ति हो तथा तुम्हारी ब्राह्मणों और देवताओं के अर्चन में प्रीति हो ॥ १८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘स्वप्नकथन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe