August 18, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-23 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तेईसवाँ अध्याय बल्लाल के शापसे कल्याण वैश्य को अन्धत्व, बधिरत्व और मूकत्व की प्राप्ति; माता की प्रार्थना पर बल्लाल द्वारा शापमुक्ति का उपाय बताना अथः त्रयोविंशोऽध्यायः भविष्यकथनं भृगुजी बोले — [ हे राजा सोमकान्त !] विश्वामित्र के वचन सुनकर [कल्याण नाम वाले] उस वैश्य से सम्बन्ध रखने वाली कथा के श्रवण में परम उत्सुक राजा भीम ने उनसे पुनः पूछा। हे नृपश्रेष्ठ सोमकान्त ! मैं उसे तुमसे कहता हूँ, उसे सुनो ॥ ११/२ ॥ [ राजा ] भीम बोले — [हे मुने!] मैंने दक्ष के चरित का श्रवण किया, इससे मेरा मन शान्त हुआ । कल्याण वैश्य की क्या गति हुई ? अब आप उसे कहिये ॥ २१/२ ॥ विश्वामित्रजी बोले — हे भीम ! मैं इस कथा को तुमसे कहता हूँ, तुम एकाग्र मन से इसका श्रवण करो । बल्लाल के शाप के कारण कल्याण की देह से रक्तस्राव होने लगा। उसका शरीर असंख्य घावों से भर गया । उससे सड़े मांस की दुर्गन्ध आने लगी। उस दुष्ट में बाधिर्य (बहरापन), अन्धत्व और मूकत्व (गूँगापन) उत्पन्न हो गये । तदनन्तर जब इन्दुमती ने उसकी ऐसी दशा देखी, जो कि अचानक ही उत्पन्न हो गयी थी, तो वह ‘यह क्या हुआ ?” “यह क्या हुआ ?” यह कैसे हुआ ?’ विचार करती हुई अत्यन्त शोक में पड़ गयी कि मेरे ज्ञानी, उदार, देवद्विजपरायण, धर्मशास्त्रोक्त कर्तव्यों में निष्ठा रखने वाले, एकपत्नीव्रती निष्पाप पति की ऐसी अवस्था क्यों हो गयी ?॥ ३–७ ॥ मुनि बोले — इस प्रकार अत्यन्त विलाप करती हुई और बार-बार दीर्घ श्वास लेती हुई उस (इन्दुमती) – ने जब यह सुना कि उसके पति ने पुत्र बल्लाल को वन में बाँध रखा है, तो वह और भी रुदन करती हुई पुरवासियों के साथ वन में उस स्थान पर गयी, जहाँ उसका पुत्र बँधा हुआ था। वहाँ उसने भगवान् गणपति और उनके देवालय का दर्शन किया। भगवान् गजानन का सिन्दूरालेपित विग्रह अरुण वर्ण का था, वह चार भुजाओं और तीन नेत्रों से युक्त था । उसका पुत्र बल्लाल वहाँ उन गजानन का पूजन कर रहा था ॥ ८-१० ॥ इन्दुमती ने जब देखा कि उसका पुत्र बन्धनमुक्त, घावरहित और स्वस्थ शरीरवाला है तो क्रुद्ध होकर पुरवासियों की बार-बार भर्त्सना करते हुए कहने लगी — तुम सब असत्यवादियों ने मेरे पति के समीप मुझसे क्यों वंचना की कि मैं उनको वैसी स्थिति में छोड़कर पुत्रस्नेहवश यहाँ चली आयी ? देखो, मेरा पुत्र इस प्रकार देवभक्ति कर रहा है! ॥ ११-१२१/२ ॥ मुनि बोले — ऐसा देखकर वे सभी [पुरवासी] आश्चर्यचकित हो गये और अणुमात्र (कुछ) भी नहीं बोले। तत्पश्चात् उनमें से कुछ लोग कहने लगे- महाभक्ति की महिमा कौन जान सकता है ? ॥ १३१/२ ॥ सिन्दूर की आभा से अरुण वर्ण वाले, लाल चन्दन का लेप किये हुए, लाल वस्त्र पहने, लाल पुष्पों की माला से शोभायमान, आसक्तिरहित, निरहंकार और बिना सूँड़ के विघ्नराज गणेश के जैसे अपने पुत्र को देखकर वह इन्दुमती शोक का त्यागकर आनन्दित हो उठी। उसने पुत्र का आलिंगन किया, उस समय वात्सल्यस्नेहवश उसके स्तनों से दुग्ध-प्रवाह होने लगा ॥ १४–१६ ॥ उसने पुत्र से कहा — हे महामते! अपने घर को चलो, तुम्हारे पिता महान् संकट में फँस गये हैं । वहाँ चलकर तुम उनके स्वस्थ होने का कुछ उपाय करो ॥ १७ ॥ तुम्हारे सदृश पुत्र को प्राप्त कर हम दोनों इस संसार में धन्य हो गये। तुम्हारे पिता का सम्पूर्ण शरीर घावयुक्त हो गया है, उससे रक्तस्राव होता है और सड़े हुए मांस की-सी गन्ध आती है। उनका मुख काला पड़ गया है। वे कृशकाय, बधिर और अन्धे हो गये हैं। मैं उनकी यह स्थिति तुमसे निवेदन करने यहाँ आयी हूँ ॥ १८-१९ ॥ यद्यपि उन्होंने तुम्हें ताड़ित करके अनर्थ ही किया है, पर पिता के कर्तव्य के कारण ही उन्होंने ऐसा किया है। वेदों, स्मृतियों और पुराणों के अनुसार इसमें उनका अपराध नहीं है ॥ २० ॥ हे पितृभक्त! तुम अपने पुत्रधर्म का निरीक्षण कर उन्हें निरोग करने पर विचार करो। तुम्हारे कारण ही तुम्हारे पिता इस संसार में अत्यन्त प्रशंसनीय हैं ॥ २१ ॥ माता-पिता के वचन का पालन करना, उनका पूजन करना और उन दोनों का पालन-पोषण करना यशस्वी सत्पुत्र के लिये कर्तव्य है ॥ २२ ॥ हे पुत्र ! तुम मुझपर [कृपा]-दृष्टि करो। औषधि- प्रयोग, मन्त्रजप और देवप्रार्थना से [ पिता के स्वस्थ होने का] उपाय करो ॥ २३ ॥ हे मेरे बालक (पुत्र) ! इससे संसार में तुम्हारा यश होगा और मेरा सौभाग्य सुरक्षित रहेगा। उस (माता)- की इस प्रकार की बात सुनकर बल्लाल ने इस प्रकार कहा — ॥ २४ ॥ बल्लाल बोला — कौन किसकी माता है ? कौन किसका पिता है? कौन किसका पुत्र है ? अथवा कौन किसका मित्र है ? यह सब विघ्नराज गणेशजी द्वारा निर्मित आनुषंगिक सम्बन्ध कहा जाता है ॥ २५ ॥ हे भद्रे ! इसलिये मेरे माता-पिता भगवान् विनायक ही हैं। जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा ही फल भोगता है ॥ २६ ॥ मैंने अपना जीवन देवाधिदेव गजानन गणेशजी को समर्पित कर दिया है। मेरी सुन्दर भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने ही मुझे प्राण और ज्ञान प्रदान किया है ॥ २७ ॥ हे कल्याणी! देवालय तोड़ने, देवप्रतिमा को फेंकने और विघ्नविनायक गणेशजी के अतिशय भक्त मुझको पीटने के कारण उन्हें वैसा फल प्राप्त हुआ है ॥ २८ ॥ [तात्त्विक दृष्टि से] विचार किया जाय तो न तुम मेरी माता हो और न वह [कल्याण] मेरा पिता है; क्योंकि सबके माता-पिता तो वे भगवान् गजानन गणेशजी ही हैं ॥ २९ ॥ वे ही ज्ञानदाता, रक्षक और कालरूप संहारक हैं। सम्पूर्ण स्वरूपों में वे ही हैं। वे ही देवेन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु और शिवस्वरूप हैं ॥ ३० ॥ जिस घमण्डी, दुष्ट और निर्दयी ने व्यर्थ में ही मुझे पीटा; देव-प्रतिमा को फेंक दिया और [उनके] मन्दिर को भी तोड़ डाला – ऐसे उस पतित के मुख को देखने से भी महान् दोष होगा। अतः आप मेरे प्रति स्नेह का त्याग करके अपने पति की विशेष रूप से सेवा कीजिये ॥ ३१-३२ ॥ विश्वामित्रजी बोले — पुत्रके इस प्रकार के वचन सुनकर वह पुनः उससे बोली — ॥ ३२१/२ ॥ माता ने कहा — [ हे पुत्र ! ] तुम मुझ पर अनुग्रह करके अथवा स्नेहसम्बन्ध के कारण इस शाप से मुक्ति के विषय में कृपापूर्वक बताओ ॥ ३३ ॥ पुत्र बोला — हे उत्तम व्रतों का पालन करने वाली ! वर माँगने वाली तुम अगले जन्म में इस (कल्याण) – की जननी होओगी। यह (कल्याण) तुम्हारा इसी प्रकार का अर्थात् गूँगा-बहरा, अन्धा और रक्तस्रावयुक्त पुत्र होगा । वल्लभ नामक श्रेष्ठ क्षत्रिय तुम्हारा पति होगा और तुम कमला नाम से प्रसिद्ध होओगी ॥ ३४-३५ ॥ तुम्हारा पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध होगा । तदनन्तर दक्ष के अन्धत्व, बधिरत्व, मूकत्व [आदि दोषों] और घावों से निवृत्ति के लिये वल्लभ बारह वर्षों तक तपस्या के नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए कठोर तप करेगा ॥ ३६-३७ ॥ हे शुभानने! [ तपस्या सम्बन्धी] फल की प्राप्ति न होने से वह पुत्रसहित तुम्हें घर से बाहर निकाल देगा और तब तुम दूसरे देश में जाकर रहने लगोगी ॥ ३८ ॥ हे कल्याणि ! दैवयोग से गजानन गणेशजी में अनुरक्त चित्तवाले किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण के स्पर्श से तुम्हारा पुत्र ठीक हो जायगा ॥ ३९ ॥ वहीं उसे गणनाथ गणेशजी का दर्शन भी हो जायगा और गजानन गणेशजी की कृपा से उसे दिव्य देह की भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४० ॥ हे मंगलमयि! इस प्रकार मैंने उसकी शापमुक्ति का उपाय बता दिया और भविष्य के विषय में भी तुम्हें आज ही बता दिया। अब तुम जहाँ इच्छा हो, वहाँ चली जाओ ॥ ४१ ॥ विश्वामित्रजी बोले — [ हे राजन् ! ] उस (बल्लाल) – के द्वारा इस प्रकार निराकरण किये जाने पर दुःख और शोक से युक्त उसकी माता (इन्दुमती) – को कुछ हर्ष हुआ और वह वहाँ से चली गयी ॥ ४२ ॥ तदनन्तर वह (बल्लाल) भी गणेशजी की भक्ति से भावित होकर गजानन गणेशजी द्वारा प्रस्तुत विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्ग को चला गया ॥ ४३ ॥ इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह मैंने तुमसे सब कुछ कह दिया। उस [कल्याण नाम वाले] वैश्य ने दोनों जन्मों में जो गति प्राप्त की, और बल्लाल ने जैसा कंहा था, वह सब वैसा ही हुआ। वह [इन्दुमती ] कमला हुई और वह [कल्याण ] क्षत्रियश्रेष्ठ (वल्लभ के पुत्र) – के रूप में उत्पन्न हुआ ॥ ४४-४५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘भविष्यकथन’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ Content is available only for registered users. 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