August 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-20 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ बीसवाँ अध्याय बालक दक्ष द्वारा विघ्नविनायक गणेशजी की स्तुति करना और गणेशजी का उसे दर्शन देना अथः विंशतितमोऽध्यायः दक्षस्तुतिः ब्रह्माजी बोले — [हे व्यासजी !] तदनन्तर उस (राजा)-ने ब्राह्मणों, साधुओं, ज्योतिषियों और वेदज्ञों को बुलाकर उनका रत्न, वस्त्र, धन आदि से पूजनकर, तत्पश्चात् उनसे पूछकर उसने अपने पुत्र का नाम ‘दक्ष’ रखा ॥ ११/२ ॥ उसने पुत्र को रोग से मुक्ति दिलाने और अपनी संतानपरम्परा की अभिवृद्धि के लिये जप और मन्त्रानुष्ठान कराये, औषधीय चिकित्सा करवायी और स्वयं भी बारह वर्षों तक कठोर तप किया ॥ २-३ ॥ परंतु जब इतने पर भी उस राजा ने पुत्र को रोग से मुक्त होते न देखा तो उसका धैर्य टूट गया और वह निराशा एवं क्रोध से मूर्च्छित-सा होकर बोला — ॥ ४ ॥ हे रानी कमला ! तुम पुत्रसहित मेरे भवन से चली जाओ, न मैं इस पुत्र को और न तुम्हें ही देखने में समर्थ हूँ ॥ ५ ॥ इस प्रकार [अपने पति] राजा वल्लभ द्वारा भर्त्सना किये जाने पर रानी कमला अपने पुत्र को लेकर उस नगर से वन को चल दी ॥ ६ ॥ शोक से व्याकुल और दुखी होकर वह रोती और आँसुओं को पोंछती हुई तथा पुत्र को पीठ पर लादे हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम को जाती थी। भूख-प्यास और थकान से कृश शरीरवाली उसको अत्यन्त व्याकुल होकर भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करना पड़ रहा था । लुटेरों ने उसके वस्त्र और आभूषणादि भी लूट लिये थे ॥ ७-८ ॥ तदनन्तर किसी अन्य गाँव में जाकर पुत्र को उसने एक शिव मन्दिर में बैठा दिया और वह स्वयं, जो कभी राजा की प्रिय पत्नी थी, भिक्षा के लिये नगर में भ्रमण करने लगी ॥ ९ ॥ किसी समय वह अपने पुत्र के साथ भिक्षा के लिये नगर में गयी। [उस समय ] किसी द्विजश्रेष्ठ के शरीर के सम्पर्क से आयी हुई वायु का उस बालक से स्पर्श हुआ । उस द्विजश्रेष्ठ की भक्ति के अतिशय पुण्य-प्रभाव से उस बालक ने लम्बोदर गणेशजी का साक्षात् दर्शन किया, जिससे वह नेत्रों से देखने और कानों से सुनने की शक्ति से सम्पन्न और दिव्य शरीर वाला हो गया ॥ १०-११ ॥ उसे देखकर और उसके द्वारा बार-बार उच्चारण की जानेवाली मधुर एवं सुखद वाणी को सुनकर कमला ने सभी दुःखों का त्यागकर अत्यन्त हर्ष का अनुभव किया ॥ १२ ॥ `तत्पश्चात् कमला विचार करने लगी कि मेरा जो पुत्र मणि – मन्त्र के प्रयोग से, महौषधियों द्वारा चिकित्सा से और विशाल हवनात्मक अनुष्ठानों से भी स्वस्थ नहीं हुआ, वह [उन द्विजश्रेष्ठ के शरीर के सम्पर्क वाली ] वायु के स्पर्शमात्र से कैसे स्वस्थ हो गया ! ‘मैं उन दुष्कर्मनाशक पुरुष (द्विजश्रेष्ठ)- ) – का कहाँ दर्शन कर सकूँगी ?’ – यह कहती हुई वह पुत्र का आलिंगनकर दुःखरहित हो गयी और उसे साथ लेकर भिक्षा के लिये उस नगर में पुनः गयी ॥ १३–१५ ॥ [उस नगर के] नागरिकों ने उन दोनों को सादर आमन्त्रित किया और नाना प्रकार के पक्वान्नों, शर्करा और घृत से समन्वित खीर एवं शाकादि से युक्त भोजन कराया ॥ १६ ॥ इस प्रकार वे दोनों दिन-प्रतिदिन उनके यहाँ भोजन करते और धन तथा नये-नये उत्तम कोटिं के वस्त्र भी प्राप्त करते थे ॥ १७ ॥ [एक दिन] एक नागरिक ने उस बालक से पूछा कि तुम्हारा और तुम्हारे पिता का क्या नाम है ? तुम किस देश और किस नगर के निवासी हो ? तुम्हारी जाति क्या है ? और तुम्हारा व्यवसाय क्या है ?॥ १८ ॥ उस नागरिक का इस प्रकार का वचन सुनकर उस बालक ने अपना नाम ‘दक्ष’ बतलाया; तदनन्तर माँ के पास आकर अपने पिता, नगर, कुल और व्यवसाय के विषय में पूछकर पुनः उस नागरिक से कहा — [ हे ब्रह्मन् ! ] कर्नाटकदेशान्तर्गत भानु नामक नगर में वल्लभ नामक क्षत्रिय [राजा] हैं, जो महान् बलशाली और शत्रुसेनाओं का नाश करने वाले के रूप में विख्यात हैं — वे मेरे पिता हैं । उनकी कमला नाम वाली यह पत्नी है और मैं दक्ष नामवाला इसका पुत्र हूँ ॥ १९–२१ ॥ हे ब्रह्मन्! जब मैं उत्पन्न हुआ, तो अन्धा एवं बधिर था, मेरे शरीर में अनेक घाव थे, तब माता मेरा त्याग करने को उद्यत हो गयी ॥ २२ ॥ तब पिता ने माँ को ऐसा करने से रोका और मुझे स्वस्थ करने के बहुत-से उपाय कराये। मेरे पिता ने बारह वर्ष तक तपस्या करके उसका पुण्य मुझे निवेदित किया ॥ २३ ॥ हे नागरिक! परंतु जब तब भी मेरे शरीर में कोई सुधार न देखा तो पिता ने मुझे और माँ को [भवन से] बाहर निकाल दिया ॥ २४ ॥ यहाँ किसी [द्विजश्रेष्ठ]-के शरीर की वायु के सम्पर्क से मेरा शरीर सुन्दर हो गया है। माता के मुख से कही गयी इन सब बातों को बालक दक्ष ने उस नागरिक से कहा ॥ २५ ॥ इस प्रकार सुनकर उस नगरनिवासी व्यक्ति के चले जाने पर दक्ष अपनी माता को आनन्दित करते हुए उसके पास शीघ्रतापूर्वक चला गया ॥ २६ ॥ तब उस नगर में रहने वाले एक करुणापूर्ण चित्तवाले द्विज ने उन दोनों को गणेशजी की आराधना की विधि का उपदेश दिया ॥ २७ ॥ तदनन्तर कमला और दक्ष परम शान्तिपूर्वक एक अँगूठे पर स्थित होकर तपस्या करते हुए गणेशजी की आराधना में संलग्न हो गये ॥ २८ ॥ [इष्ट] देव श्रीगणेशजी के नाम में चतुर्थी तथा प्रारम्भमें ओंकार लगाकर बने अष्टाक्षर 1 परम मन्त्र को वे दोनों भक्तिपूर्वक जपने में तत्पर हो गये ॥ २९ ॥ वायुमात्र का भक्षण करने के कारण शुष्क शरीरवाले उन दोनों को देखकर करुणासागर भगवान् विनायक उनके समक्ष प्रकट हो गये ॥ ३० ॥ चतुर्भुजो महाकायो वारणास्योऽतिसुन्दरः । अनेक सूर्यसङ्काशो निशि सूर्य इवोदितः ॥ रत्नकाञ्चनमुक्तावन्मुकुटभ्राजिमस्तकः । पीतकौशेयवसनो हाटकाङ्गदभूषणः ॥ एकजानुनिपातेन सन्निविष्टो महासने । कटिसूत्रं काञ्चनीयं मुद्रिका रत्नसंयुताम् ॥ महाहिं जठरे बिभ्रदेकदन्तं गजार्धकम् । उनका श्रीविग्रह चतुर्भुज, विशाल शरीरवाला, गजमुख, अत्यन्त सुन्दर और रात्रि में उदय हुए अनेक सूर्यौ की प्रभा के समान कान्तिमान् था ॥ ३१ ॥ उनका मस्तक रत्नों और मोतियों से जटित सुवर्ण मुकुट से सुशोभित हो रहा था, उन्होंने रेशमी पीताम्बर धारण कर रखा था तथा सोने के बने बाजूबन्दों से वे अलंकृत थे ॥ ३२ ॥ एक घुटना नीचे झुकाये हुए वे उत्तम आसन पर आसीन थे। उन्होंने सुवर्णनिर्मित करधनी और रत्नजटित अँगूठी धारण कर रखी थी ॥ ३३ ॥ उनके तीन नेत्र थे, वे अपने जठरप्रदेश पर एक महासर्प को लपेटे हुए थे, उनके मुख में एक दाँत सुशोभित था। इस प्रकार का रूप दिखाकर वे पुनः द्विजरूप हो गये ॥ ३४ ॥ तदनन्तर द्विजरूपधारी उन गणेशजी ने कहा कि मैं तुम दोनों की आराधना से सन्तुष्ट होकर वरदान देने के लिये आया हूँ, तुम दोनों अपना मनोवांछित वर माँगो ॥ ३५ ॥ विश्वामित्रजी बोले — [ हे राजा भीम ! ] इस प्रकार विघ्नराज गणेशजी के प्रसन्न होने और द्विजरूप में प्रत्यक्ष दर्शन देने पर [दक्ष ने] हाथ जोड़कर परम भक्तिभाव से प्रणामकर उनसे कहा — ॥ ३६ ॥ ॥ दक्ष कृत गणेशस्तुतिः ॥ ॥ दक्ष उवाच ॥ पूर्वजन्मकृतं पुण्यं फलितं मे द्विजोत्तम । यन्मयाऽदर्शितं रूपं ते द्विविधं परमं महत् ॥ ३७ ॥ वैनायकं च वैप्रं च जन्म मेऽजनि सार्थकम् । कारणानां परं त्वं च कारणं छन्दसामपि ॥ ३८ ॥ परं ज्ञेयं परं ब्रह्म श्रुतिमृग्यं सनातनम् । त्वमेव साक्षी सर्वस्व सर्वस्यान्तर्बहिस्तथा ॥ ३९ ॥ त्वमेव कर्ता कार्याणां लघुस्थूलशरीरिणाम् । नानारूप्येकरूपी त्वं निरूपश्च निराकृतिः ॥ ४० ॥ त्वमेव शङ्करो विष्णुस्त्वमेवेन्द्रोऽनलोऽर्यमा । भूवायुखस्वरूपोऽपि जलसोमर्क्षरूपवान् ॥ ४१ ॥ विश्वकर्ता विश्वपाता विश्वसंहारकारकः । चराचरगुरोर्गोप्ता ज्ञानविज्ञानवानपि ॥ ४२ ॥ भूतं भावि भवच्चैव त्वमेवेन्द्रियदेवताः । कला काष्ठा मुहूर्ताश्च श्रीर्धृतिः कान्तिरेव च ॥ ४३ ॥ त्वमेव साङ्ख्यं योगश्च शास्त्राणि श्रुतिरेव च । पुराणानि चतुःषष्टिकला उपनिषत्तथा ॥ ४४ ॥ त्वमेव ब्राह्मणो वैश्यः क्षत्रियः शूद्र एव च । देशो विदेशस्त्वं क्षेत्रं पुण्यक्षेत्राणि यान्युत ॥ ४५ ॥ त्वं प्रमेयोऽप्रमेयश्च योगिनां ज्ञानगोचरः । त्वमेव स्वर्गः पातालं वनान्युपवनानि च ॥ ४६ ॥ ओषध्योऽथ लतावृक्षकन्दमूलफलानि च । अण्डजा जारजा जीवाः स्वेदजा उद्भिजा अपि ॥ ४७ ॥ कामः क्रोधः क्षुधा लोभो दम्भो दर्पो दया क्षमा । निद्रा तन्द्री विलासश्च हर्षः शोकस्त्वमेव च ॥ ४८ ॥ दक्ष बोला — हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरे पूर्वजन्मों में किये पुण्य फलित हुए हैं, जिससे मुझे आपके दो प्रकार के परम महनीय रूपों का दर्शन प्राप्त हुआ है ॥ ३७ ॥ आपके विनायकरूप और विप्ररूप का दर्शन कर मेरा जन्म सार्थक हो गया। आप कारणों के भी परम कारण और वेदों के भी कारणरूप हैं ॥ ३८ ॥ आप परम ज्ञेय (जाननेयोग्य), परम ब्रह्म, श्रुति के द्वारा अनुसन्धेय, सनातन, सबके साक्षी और सबके अन्दर एवं बाहर व्याप्त हैं ॥ ३९ ॥ समस्त कार्यों के कर्ता आप ही हैं, आप ही सूक्ष्म एवं महाकाय प्राणियों के भी कर्ता हैं। आप अनेक रूपवाले होते हुए भी एक (अद्वितीय) रूपवाले हैं, आप रूपरहित और आकाररहित भी हैं ॥ ४० ॥ आप ही शंकर हैं, आप ही विष्णु, इन्द्र, अग्नि, अर्यमा, पृथ्वी, वायु, आकाशस्वरूप तथा जल, चन्द्रमा और नक्षत्ररूप भी हैं ॥ ४१ ॥ आप ही विश्व के सृजनकर्ता, विश्व के पालनकर्ता और विश्व के संहारकर्ता हैं। आप ही इस स्थावर-जंगमात्मक सम्पूर्ण जगत् के गुरु के भी संरक्षक और ज्ञान-विज्ञानवान् हैं ॥ ४२ ॥ आप ही भूत, भविष्य और वर्तमान हैं। आप ही इन्द्रियों के अधिष्ठातृदेवता हैं। आप ही कला, काष्ठा और मुहूर्तरूप हैं तथा आप ही श्री, धृति और कान्ति हैं । आप ही सांख्य, योग [आदि दर्शन ], [विविध ] शास्त्र, वेद, पुराण, चौंसठ कलाएँ और उपनिषद् हैं ॥ ४३-४४ ॥ आप ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र (चारों वर्ण) हैं तथा आप ही देश, विदेश, क्षेत्र एवं पुण्य क्षेत्रों के रूप में स्थित हैं ॥ ४५ ॥ आप ही प्रमेय (प्रमाणित किये जाने योग्य) और अप्रमेय (प्रमाणों से परे) हैं। आप ही योगियों को ज्ञान द्वारा अधिगत होते हैं। आप ही स्वर्ग, पाताल, वन और उपवन हैं ॥ ४६ ॥ आप ही औषधियाँ, लता, वृक्ष, कन्द, मूल और फल हैं तथा आप ही अण्डज, जरायुज, स्वेदज और उद्भिज्जरूप [जीव] हैं ॥ ४७ ॥ आप ही काम, क्रोध, क्षुधा, लोभ, दम्भ (आत्मश्लाघा), दर्प (अभिमान), दया (करुणा), क्षमा, निद्रा, तन्द्रा (शैथिल्य), विलास, हर्ष और शोक हैं ॥ ४८ ॥ विश्वामित्रजी बोले — [हे राजन्!] दक्ष के इस प्रकार के वचन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए विनायक श्रीगणेशजी ने मन्द हास्य करते हुए मेघसदृश गम्भीर वाणी में उससे कहा — ॥ ४९ ॥ गजानन (गणेशजी ) बोले — हे महाभाग ! तुम्हारे द्वारा की गयी इस गम्भीर स्तुति से मैं प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें वरदान देने के लिये यद्यपि अत्यन्त उत्कण्ठित हूँ, फिर भी नहीं दे रहा हूँ; क्योंकि यदि मैं तुम्हें वर दे देता हूँ तो मेरा भक्त मुझ पर ही नाराज हो जायगा । मेरा वही भक्त तुम्हें वरदान देगा, जिसके शरीर के सम्पर्क में आयी वायु के स्पर्श से तुम्हें नेत्र और श्रोत्र से समन्वित दिव्य देह की प्राप्ति हुई है। मैं उसका नाम भी बतलाता हूँ, उसका नाम मुद्गल है ॥ ५०–५२ ॥ तुम्हारे द्वारा ध्यान करनेमात्र से वे विप्रश्रेष्ठ तुम्हें दर्शन देंगे। तुम जो-जो कामनाएँ करोगे, वे उन सबको पूर्ण करेंगे ॥ ५३ ॥ इस प्रकार कहकर वे परमात्मा [ श्रीगणेशजी] वहीं अन्तर्धान हो गये । उनके अन्तर्धान हो जाने पर अत्यन्त दुखित होकर [बालक] दक्ष वैसे ही रुदन करने लगा, जैसे दरिद्र निधि पा गया हो और उसके खो जाने पर रुदन करता है अथवा गाय के चले जाने पर उसका बछड़ा अत्यन्त [करुण स्वर से] रँभाता है ॥ ५४-५५ ॥ विघ्नविनायक गणेशजी कहाँ गये ? कहाँ चले गये? — इस प्रकार बार-बार कहते हुए और अपने दोनों नेत्रों से आँसू बहाते हुए वह धरती पर गिर पड़ा ॥ ५६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके अन्तर्गत उपासनाखण्डमें ‘दक्षकृत विनायकस्तुतिवर्णन ‘ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ 1. . ॐ गं गणपतये नमः । Content is available only for registered users. 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