श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-19
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
उन्नीसवाँ अध्याय
राजा भीम की निःसंतानता के कारण का वर्णन
अथः एकोनविंशतितमोऽध्यायः
कमलापुत्र वर्णनं

भृगुजी बोले — [ हे राजन्!] इस आख्यान को सुनकर और षडक्षर मन्त्र की [जप] – विधि जानकर भी व्यासजी ने ब्रह्माजी से पुनः इस प्रकार पूछा, जैसे उनकी तद्विषयक इच्छा पूर्ण न हुई हो ॥ १ ॥

व्यासजी बोले — हे ब्रह्मन् ! मैंने पापहारी, सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाले और पुण्यवर्धक सिद्धिक्षेत्र एवं गणेशजी के माहात्म्य को सुना, परंतु मुझे इस कथा- सुधा के पान से परम तृप्ति नहीं हुई है, अतः आप भगवान् विनायक के कथानक को पुनः कहें ॥ २-३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे पराशरपुत्र व्यासजी ! मैं सर्वदेवाधिदेव भगवान् गणेश के इस मंगलमय महान् आख्यान को तुम्हारे सम्मुख कहता हूँ — ॥ ४ ॥

विदर्भदेश में भीम नामक एक राजा हुआ; जो दानवीर, महान् बलशाली, उदार और प्रचण्ड पराक्रमी था। हे महामते! कौण्डिन्यनगर में उसका निवास था । सामन्तगण और दूसरे राजा उसको कर दिया करते थे ॥ ५-६ ॥ उसके आगे-आगे अश्वारोहियों, गजारोहियों, पैदल सैनिकों और रथारोहियों से युक्त दस करोड़ सैनिकों वाली सेना चलती थी तथा उसके पीछे भी वैसे ही तथा उतने ही सैनिक होते थे ॥ ७ ॥ हजारों ब्राह्मण उसके आश्रय में रहते हुए प्रसन्नतापूर्वक जीवनयापन करते थे। उसकी महान् भाग्यशालिनी भार्या का नाम चारुहासिनी था ॥ ८ ॥ खिले हुए कमल के समान मुख और मृगशावक के समान नेत्रों वाली वह ब्राह्मण-भक्त, देवपरायण और नित्य धर्म में सतत तत्पर रहने वाली थी ॥ ९ ॥

वह पतिव्रता, पतिप्राणा और सदा पति की आज्ञा मानने वाली थी, परंतु उत्तम और सुन्दर रंग-रूपवाली होते हुए भी दैवयोग से वह पुत्रहीना थी ॥ १० ॥ उस सर्वांगसुन्दरी रानी को देखकर पुत्रहीन नृपश्रेष्ठ भीम दुखी होकर कहने लगे — सम्पूर्ण राज्य का परित्याग करके अब मुझे [ किसी] श्रेष्ठ वन में चले जाना चाहिये; क्योंकि अपुत्र की सद्गति नहीं होती, उसे स्वर्ग या सुख नहीं प्राप्त होता । देवता उसके द्वारा दिये गये हव्य का और पितर लोग कव्य का ग्रहण नहीं करते; इसलिये मेरा तो जननी के गर्भ से जन्म लेना ही व्यर्थ हो गया। मेरे लिये [यह] राजमहल, धन-सम्पत्ति और कुल परिवार — सब व्यर्थ है ॥ ११-१३ ॥ ‘बिना पुत्र के सारे कर्म निश्चित ही व्यर्थ होते हैं’ — ऐसा निश्चित मानकर उन्होंने अपने दो मन्त्रियों को बुलाया। उनमें से एक का नाम मनोरंजन और दूसरे का नाम सुमन्तु था। वे दोनों आन्वीक्षिकी 1 , वेदत्रयी 2  और षोडश कलाओं के ज्ञाता थे ॥ १४-१५ ॥

हे मुने ! उन्होंने उसी क्षण वहाँ आकर उन राजा को नमस्कार किया, तब राजा भीम ने उन दोनों [मन्त्रियों ] — से कहा कि ‘तुम दोनों मेरे राज्य का परिपालन करना ‘ ॥ १६ ॥ मेरे या मेरी पत्नी के द्वारा पूर्वजन्म में कोई पाप हुआ था, जिसके कारण हम दोनों को दोनों लोकों में सुख देने वाली सन्तान नहीं प्राप्त हुई ॥ १७ ॥ यदि मैं पुनः आ जाऊँ तो मेरा राज्य मुझे दे देना, नहीं तो तुम दोनों राज्य को बाँटकर ले लेना ॥ १८ ॥

इस प्रकार का निश्चय करके राजा ने पहले स्वस्ति- पाठ कराया, फिर ब्राह्मणों को बहुत-सा दान देकर नगर से बाहर निकले ॥ १९ ॥ वे नृपश्रेष्ठ भीम अपनी पत्नी, दोनों मन्त्रियों और नगरवासियों के साथ गव्यूतिमात्र (दो कोस) – तक गये और वहाँ से उन सबको वापस भेज दिया ॥ २० ॥

तब उन दोनों मन्त्रियों ने कहा — ‘हे राजन् ! हम दोनों भी आपके साथ चलेंगे।’ राजा के सुहृज्जन और उनके नगर के निवासी अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगे ॥ २१ ॥

उन सबसे राजा ने कहा — ‘आप लोग भयभीत न हों, मैंने इन दोनों मन्त्रियों को आप सबका अधिपति बना दिया है। जैसे मैंने आप सबका पालन किया, वैसे ही भलीभाँति ये दोनों भी करेंगे ‘ ॥ २२ ॥

इस प्रकार उन सबको भलीभाँति आश्वासन  देकर उन दोनों (मन्त्रियों)-से राजा ने पुनः कहा — ‘मैंने राज्य आप दोनों को दे दिया है, आप दोनों नगर की सब प्रकार से रक्षा करना’ ॥ २३ ॥ इस प्रकार सबको छोड़कर [राजा भीम] पत्नीके साथ नगरसे बाहर चले गये । [तदनन्तर] भ्रमण करते हुए उन्होंने एक सरोवर देखा, जो कमलों से युक्त था ॥ २४ ॥ वह पुष्पित वृक्षों से सुशोभित और अनेक प्रकार के जलचर जीवों से समन्वित था। तदनन्तर उन दोनों – राजा और रानी ने उस सरोवर के निकट एक रमणीय और शुभ आश्रम को देखा, जो सबके आनन्द को बढ़ाने वाला था । जहाँ जातीय वैर रखने वाले हाथी और सिंह, नेवला और साँप, बिल्ली और चूहे आदि वैर नहीं करते थे । राजा और रानी ने वहाँ वेदाध्ययन कर रहे शिष्यों से घिरे शान्त स्वरूपवाले मुनि विश्वामित्र को देखा, जो कुश के आसन पर विराजमान थे ॥ २५–२७१/२

उन दोनों (राजा भीम और उनकी रानी) – ने उन महात्मा विश्वामित्र को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उनके चरणों से गिरकर पुन:- पुनः नमस्कार किया। मुनिश्रेष्ठ तपोनिधि विश्वामित्र ने उन्हें उठाकर और राजा के आशय को जानकर स्नेहयुक्त वाणी में कहा — ॥ २८-२९१/२  ॥

[ मुनि ] विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! तुम्हारा पुत्र गुणवान् और महान् यशस्वी होगा। हे नृपश्रेष्ठ ! तुम कहाँ से आये हो? तुम्हारे नगर का क्या नाम है ? यह सब बतलाओ, तब मैं तुम्हारे पाप के नाश के लिये यत्न करूँगा ॥ ३०-३१ ॥

[राजा] भीम ने कहा — हे स्वामिन्! विदर्भ देश में मेरा कौण्डिन्य नामक नगर है । मेरा नाम भीम है और यह चारुहासिनी मेरी पत्नी है ॥ ३२ ॥ मैंने पुत्र – प्राप्ति के लिये तपस्या, दान, व्रत आदि अनेक यत्न किये, परंतु पूर्वजन्म में किये गये पापों के कारण ईश्वर को मुझ पर करुणा नहीं आयी ॥ ३३ ॥ हे मुने! राज्य छोड़कर हम दोनों वन चले आये और यहाँ आपके चरणों का दर्शन हुआ। अनेक वनों में घूमते-घूमते दैव के द्वारा ही मैं यहाँ पहुँचाया गया हूँ ॥ ३४ ॥ साधुजनों की संगति शीघ्र ही उत्तम फल देती है, इसलिये आपके आशीर्वाद से मुझे अवश्य पुत्र-प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है । हे मुने! आप विद्या और तप से सम्पन्न, व्रत-दान-यज्ञ और स्वाध्याय करने वाले तथा दयावान् एवं संयमी हैं; आज आपके द्वारा दिया हुआ आशीर्वाद व्यर्थ नहीं होगा ॥ ३५-३६ ॥ परंतु हे मुने! पूर्वजन्म में मैंने कौन-सा पाप किया है, उसका क्या प्रतिकार है — यह बताइये; क्योंकि मैं आपको सर्वज्ञ मानता हूँ ॥ ३७ ॥

ब्रह्माजी बोले — [ हे व्यासजी !] इस प्रकार उन (राजा भीम)-के वचन सुनकर महामुनि विश्वामित्र ने उन राजा [ भीम]-से आदरपूर्वक पूर्वकाल की कथा कही ॥ ३८ ॥

विश्वामित्रजी बोले — हे दुर्मते ! तुमने धन- ऐश्वर्य के मद से अन्धे होकर वेद-शास्त्र-पुराण और लोक में प्रतिष्ठित कुलधर्म का त्याग कर दिया ॥ ३९ ॥ तुम्हारे सभी पूर्वज गणनायक गणेशजी का नित्य पूजन किया करते थे, [तुम्हारे द्वारा कुल में की जाने वाली उस पूजा का त्याग करने से] उन गणेशजी के क्रोध के कारण ही तुम्हारे संतान नहीं हो रही है ॥ ४० ॥ हे महावीर ! गजानन गणेशजी को जिस प्रकार से तुम्हारे कुल का कुलदेवत्व प्राप्त हुआ, उसे बता रहा हूँ, तुम आदरपूर्वक प्रारम्भ से सुनो ॥ ४१ ॥

[तुम्हारे वंश में] तुमसे सात पीढ़ी पहले भीम नाम के एक राजा हुए थे। उनके वल्लभ नाम का रूपवान् और धनसम्पन्न पुत्र था ॥ ४२ ॥ हे राजन्! उसके भी बहुत समय बीतने पर एक पुत्र हुआ। लेकिन वह शिशु मूक-बधिर था, उसकी देह से अत्यन्त दुर्गन्धित पीब का स्राव होता था, साथ ही वह कुबड़ा भी था ॥ ४३१/२

उसे देखकर उसकी माँ कमला बहुत दुखी हुई । उसने अपने अन्तःकरण में विचार किया कि लोक में अपुत्रता ही श्लाघ्य है, न कि इस प्रकार का पुत्रवत्त्व! क्योंकि यह तो अत्यन्त दुःखकर है ॥ ४४-४५ ॥ विधाता आज ही मेरा या इस (शिशु) – -का मरण क्यों नहीं कर देता ! मैं अपने प्रियजनों को कैसे मुँह दिखाऊँगी ? ॥ ४६ ॥

इस प्रकार विलाप करती हुई वह अत्यन्त दारुण दुःख से रोने लगी। उसके रुदन को सुनकर उसके पति [राजा वल्लभ] उस प्रसूति कक्ष में आ गये ॥ ४७ ॥ उस प्रकार के बालक और अत्यन्त दुखी पत्नी को देखकर कर्म की गति को जानने वाले [उन राजा] – ने मीठी वाणी में [पत्नी को] सान्त्वना देते हुए कहा — ॥ ४८ ॥

हे कल्याणि! दुःख न करो; क्योंकि कर्मों की गति ऐसी ही है। पूर्वजन्म में किये हुए पाप के कारण ही मनुष्य दुःख का भागी होता है ॥ ४९ ॥ जिसे दुःख प्राप्त है, उसे भी सुख की प्राप्ति होती है; वैसे ही जिसे सुख प्राप्त है, उसे भी दुःख की प्राप्ति होती है। इस बालक के विषय में [तुम्हें] शोक नहीं करना चाहिये, यह ठीक हो जायगा ॥ ५० ॥ जिस प्रकार के इसके पूर्वजन्म के कर्म होंगे, उसी प्रकार का इसका भविष्य होगा । हम लोग मणि, मन्त्र और महौषधियों का प्रयोग करके धार्मिक अनुष्ठानों एवं साधनों के द्वारा [इसे स्वस्थ करने का] प्रयत्न करेंगे ॥ ५१ ॥ हे सुन्दर भौंहोंवाली! तप, जप, देवपूजा और विधिपूर्वक तीर्थयात्रा के द्वारा इसे ठीक करने का प्रयत्न करेंगे। इस समय जो कर्तव्य है, उसका भलीभाँति सम्पादन करो ॥ ५२ ॥

[पतिद्वारा] इस प्रकार बोध कराये जाने पर उस साध्वी ने शोक का त्याग कर दिया और तदनन्तर उस शिशु को जल से प्रक्षालित करवाकर सखियों के साथ प्रसन्नता का अनुभव किया ॥ ५३ ॥ तदनन्तर उन राजा वल्लभ ने पत्नी के साथ पुत्र के समस्त जननोचित आभ्युदयिक कर्म किये और अनेक विप्रों तथा विप्रपत्नियों का पूजन किया ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘कमलापुत्र-वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

1. – तर्कशास्त्र,

2. – ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ।

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