श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-18
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
अठारहवाँ अध्याय
विष्णु का गणेशजी के षडक्षरमन्त्र का अनुष्ठान करना और गणेशजी की कृपा से मधु-कैटभ का वध करना
अथः अष्टादशोऽध्यायः
सिद्धक्षेत्रोत्पत्ति कथनं

सोमकान्त बोले — [हे मुनिश्रेष्ठ!] भगवान् श्रीहरि ने कैसे और कहाँ उस उत्तम [षडक्षर] मन्त्र का जप किया? उन्होंने किस प्रकार सिद्धि प्राप्त की, वह सब मुझसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ १ ॥

भृगुजी बोले — [ हे राजन्!] पृथ्वी पर सिद्धक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध परम सिद्धिप्रद क्षेत्र है, वहाँ जाकर महाविष्णु ने महान् तपस्या की ॥ २ ॥ उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर षडक्षर विधान से देवाधिदेव विनायक गणेशजी का ध्यान करते हुए उनकी आराधना की ॥ ३ ॥

उन्होंने बाणमुद्रा बाण मुद्रा — दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसकी तर्जनी को सीधी खड़ी करे। यह बाण मुद्रा हैं।को प्रदर्शित करते हुए अस्त्रमन्त्र (फट्)-से सर्वप्रथम आदरपूर्वक दिग्बन्धन किया। इसके बाद भूतशुद्धि और प्राणों का व्यवस्थापन करके आधार आदि के क्रम से अन्तर्मातृकान्यास सम्पन्न किया। तदुपरान्त मस्तक आदि में बहिर्मातृकान्यास करने के अनन्तर मूल मन्त्र से प्राणायाम किया। तत्पश्चात् गजाननदेव का ध्यान करके आवाहनी आदि मुद्राएँ प्रदर्शित करते हुए पहले नानाविध भावनात्मक उपचारों से और बाद में षोडशोपचारों के द्वारा गजानन की अर्चना की। इसके अनन्तर वे योगेश्वरेश्वर विष्णु उस परम मन्त्र (षडक्षरमन्त्र) – का जप करने लगे ॥ ४-७ ॥

तदनन्तर सौ वर्ष का समय बीत जाने पर करोड़ों सूर्यों और अग्नि के समान प्रकाशमान परमात्मा गणेश उनके समक्ष प्रकट हुए और अत्यन्त प्रसन्न हृदय से गरुड़ांकित ध्वजावाले भगवान् विष्णु से कहा — हे हरे ! तुम्हारी जो कामना हो, वह वर मुझसे माँग लो। तुम्हारी इस तपस्या से सन्तुष्ट मैं वह सब तुम्हें प्रदान करूँगा। यदि तुमने पहले ही मेरी आराधना कर ली होती, तो तुम्हें निश्चय ही विजय प्राप्त हो जाती ॥ ८–१० ॥

॥ विष्णु कृत गणेश स्तुति ॥
॥ हरिरुवाच ॥
ब्रह्मेशानाविन्द्रमुख्याश्च देवां यं त्वां द्रष्टुं नैव शक्तास्तपोभिः ।
तं त्वां नानारूपमेकस्करूपं पश्ये व्यक्ताऽव्यक्तरूपं गणेशम् ॥ ११ ॥
त्वं योऽणुभ्योऽणुस्वरूपो महद्भ्यो व्योमादिभ्यस्त्वं महान् सत्त्वरूपः ।
सृष्टिं चान्तं पालनं त्वं करोषि वारं वारं प्राणिनां दैवयोगात् ॥ १२ ॥
सर्वस्यात्मा सर्वगः सर्वशक्तिः सर्वव्यापी सर्वकर्ता परेशः ।
सर्वद्रष्टा सर्वसंहारकर्त्ता पाता धाता विश्वनेता पिताऽपि ॥ १३ ॥

श्रीहरि बोले — ब्रह्मा, ईशान (शिव), इन्द्र आदि प्रमुख देवता जिन आपका तपस्या के द्वारा दर्शन करने में सक्षम नहीं हैं; उन्हीं नानारूप और एक (अद्वय) स्वरूपवाले तथा व्यक्त एवं अव्यक्त स्वरूपवाले आप गणेशजी का मैं दर्शन कर रहा हूँ ॥ ११ ॥ आप अणु से भी अणु स्वरूपवाले और आकाशादि महान् पदार्थों से भी महान् एवं सत्त्वमय स्वरूप वाले हैं। प्राणियों के प्रारब्धवश आप ही बार-बार उनका सृजन, पालन और संहार करते हैं ॥ १२ ॥ आप सबके आत्मा, सर्वत्र गमनशील, सर्वशक्तिमान्, सर्वत्र व्याप्त, सब कुछ करने वाले, परमेश्वर, सब कुछ देखने वाले, सबका संहार करने वाले, सबका रक्षण करने वाले, सबको धारण करने वाले, विश्व के नेता और पिता भी हैं * ॥ १३ ॥

हे देव! इस प्रकार के आपके दर्शन से मुझे सर्वत्र सिद्धियाँ सम्भव होंगी, फिर भी मैं आपसे एक बात कहता हूँ ॥ १४ ॥ मेरी योगनिद्रा के अन्तिम समय में मेरे कर्णमल से मधु-कैटभ नामक दो महान् बलशाली [ दानव] उत्पन्न हुए और वे दोनों ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्यत हो गये ॥ १५ ॥ तब मैंने उन दोनों से बहुत वर्षों तक युद्ध किया, तदनन्तर क्षीणबल होने से मैं आपकी शरण में आया हूँ ॥ १६ ॥ अतः हे परमेश्वर ! उन दोनों का जिस प्रकार से मेरे द्वारा वध हो सके तथा अन्य दैत्यों पर भी विजय प्राप्तकर मुझे यश प्राप्त हो, उसपर विचार कीजिये । आप मुझे अपनी दृढ़ भक्ति प्रदान करें, जिससे होने- वाली मेरी अतुलनीय कीर्ति त्रैलोक्य को पावन करेगी ॥ १७-१८ ॥

गणेशजी बोले — हे विष्णो! तुमने जो-जो प्रार्थना की है, वह निश्चित रूप से पूर्ण होगी । तुम्हें यश, बल, परम कीर्ति और [कार्योंमें] निर्विघ्नता की प्राप्ति होगी ॥ १९ ॥

[ भृगु ] मुनि बोले — [ हे राजन्!] महाविष्णु के प्रति ऐसा कहकर भगवान् गणेश वहीं अन्तर्धान हो गये। तब आनन्द से पूर्ण होकर उन्होंने मान लिया कि अब वे दोनों असुर उनके द्वारा जीत लिये गये ॥ २० ॥ उन्होंने वहाँ [गणेशजी का] एक मन्दिर बनवाया, जो स्फटिक मणियों और अनेक रत्नों से जटित था । वह सुवर्णमय शिखर और चार द्वारों से सुशोभित था ॥ २१ ॥ उन्होंने गण्डकी नदी से प्राप्त पाषाण से [गणेशजी की] प्रतिमा का निर्माण कराया और उसे मन्दिर में स्थापित किया। देवताओं और मुनियों ने उस प्रतिमा को ‘सिद्धि-विनायक’ नाम दिया ॥ २२ ॥ चूँकि श्रीहरि ने इसी क्षेत्र में यह शुभ सिद्धि प्राप्त की थी, अतः वह क्षेत्र पृथ्वी पर ‘सिद्धक्षेत्र 1  ‘ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ॥ २३ ॥

तदनन्तर वे श्रीहरि उस स्थान पर गये, जहाँ वे दोनों — मधु और कैटभ स्थित थे। जब उन दोनों ने श्रीहरि को आते हुए देखा तो हँसते हुए उनकी निन्दा करने लगे ॥ २४ ॥

[उन्होंने श्रीहरि से कहा — ] तुम्हारा मेघसदृश श्याम मुख आज हमें पुन: कहाँ से दिखायी दे रहा है ? अतः हम दोनों पुनः तुम्हें महामुक्ति देंगे; तुम तो लघुता अर्थात् पराजय को प्राप्त हो गये थे, फिर [पुन:] किसलिये रण में आ गये ? ॥ २५१/२

श्रीहरि बोले — अग्नि की छोटी-सी चिनगारी सहसा सब कुछ जला डालती है । जैसे लघु [आकारवाला] दीपक रात्रि के महान् अन्धकार का संहार कर डालता है, वैसे ही मैं तुम दोनों मदोन्मत्त दुष्टों का आज ही नाश कर देने में समर्थ हूँ ॥ २६-२७ ॥

[ भृगु] मुनि बोले — [हे राजा सोमकान्त !] उन श्रीहरि के इस प्रकार के वचन को सुनकर मधु-कैटभ ने अत्यन्त क्रोधित होकर सहसा [भगवान्] विष्णु के हृदयदेश में मुक्के से घोर प्रहार किया ॥ २८ ॥ तब पुनः उन दोनों (मधु-कैटभ) – का उन (भगवान् विष्णु) – के साथ मल्लयुद्ध शुरू हो गया, जो बढ़ता ही गया। [इस प्रकार] उन दोनों के साथ बहुत दिन तक युद्ध करके श्रीहरि उन्हें वर देने के लिये समुत्सुक हुए। उन्होंने मधुर वाणी में उन दोनों दानवों-मधु-कैटभ से कहा — तुम दोनों ने मेरे प्रहारों को बहुत समय तक सहन किया है। हे दैत्यश्रेष्ठो! मैं तुम दोनों के पुरुषार्थ से प्रसन्न हूँ। तुम दोनों के समान न कोई हुआ है, न होगा ॥ २९–३१ ॥

वे दोनों (मधु-कैटभ) बोले — हे हरे ! हम दोनों तुम्हारे युद्ध से बहुत सन्तुष्ट हुए हैं, इसलिये तुम हमसे वर माँगो; हम तुम्हें बहुत-से वर देंगे ॥ ३२ ॥

[ भृगु ] मुनि बोले — [ हे राजन्!] माया से मोहित उन दोनों [दैत्यों ] -के वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि ने प्रसन्न होकर कहा — हे दैत्यद्वय ! यदि तुम दोनों मुझे वर देने के लिये समुद्यत हो तो तुम दोनों मेरे वध्य हो जाओ — यही मैंने वर माँगा है ॥ ३३१/२

तब सब जगह जल-ही-जल देखकर उन दोनों — मधु और कैटभ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा — हे माधव! तुम्हारे हाथ से मृत्यु मंगलकारिणी है; अन्तकाल में तुम्हारे चिन्तन से लोगों को सद्यः सनातनी मुक्ति प्राप्त होती है, अतः जहाँ पृथ्वी जल में डूबी न हो, वहाँ हम दोनों का वध करो। हम दोनों सब कुछ छोड़ सकते हैं, लेकिन सत्य नहीं; क्योंकि सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है ॥ ३४–३६ ॥

मुनि बोले — [ हे राजन्!] उन दोनों (मधु- कैटभ) – के इस प्रकार के वचन को सुनकर [ श्रीहरि ने] उनको अपने जघनप्रदेश पर लिटाया और तीक्ष्ण धारवाले चक्र से उनके सिरों को काट दिया ॥ ३७ ॥ तब देवताओं ने प्रसन्न होकर फूल बरसाये, गन्धर्वों ने नृत्य किया और अप्सराओं के समूहों ने गीत गाये ॥ ३८ ॥ तदनन्तर भगवान् विष्णु ने परमेष्ठी ब्रह्माजी के पास जाकर हर्षपूर्वक उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ३९ ॥

श्रीहरि बोले — [हे ब्रह्मन् !] जब मैं उन दोनों (मधु-कैटभ) – को जीतने में समर्थ नहीं हो सका, तब मैं भगवान् शंकर के पास गया। शंकरजी ने मुझे षडक्षर मन्त्र (वक्रतुण्डाय हुं ) – का उपदेश दिया ॥ ४० ॥ उससे मैंने देवाधिदेव भगवान् विघ्नेश्वर (गणेशजी ) – की आराधना की। उन्होंने मुझे कामनाओं को फलीभूत करने वाले अनेक वरदान दिये ॥ ४१ ॥ वे भगवान् गणेश मेरे द्वारा स्तुत और पूजित होकर उसी समय अन्तर्धान हो गये। उन वरदानों के प्रभाव से मैंने उन दोनों दुष्टों – मधु और कैटभ का वध कर दिया ॥ ४२ ॥ भगवान् शंकर की कृपा से मुझे उन महात्मा गणेशजी की महिमा विशेष रूप से ज्ञात हो चुकी है, अब मैं दैत्यों और दानवों का हनन करता रहूँगा ॥ ४३ ॥ उस समय समस्त देवताओं और मुनियों ने गजाननदेव, आप ब्रह्माजी, भगवान् शंकर और मेरी (विष्णु की) स्तुति की और अपने-अपने निवास-स्थान को चले गये ॥ ४४ ॥

[ सूतजी कहते हैं — हे मुनियो !] जो इस पापनाशक [गणपति]-माहात्म्य का नित्य श्रवण करता है; उसे कभी भय नहीं होता और वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को फलीभूत कर लेता है ॥ ४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके अन्तर्गत उपासनाखण्डमें ‘सिद्धक्षेत्रोत्पत्तिवर्णन’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

1. मुम्बई-रायचूर लाइनपर धौंड जंक्शन से ९ किमी० दूर बोरीवली स्टेशन है। वहाँ से लगभग ९ किमी० दूर भीमा नदी के किनारे यह स्थान है। इसका प्राचीन नाम ‘सिद्धाश्रम’ है। यहाँ भगवान् विष्णु ने मधु-कैटभ दैत्यों को मारने के लिये गणेशजी का पूजन किया था। द्वापरान्त में व्यासजी ने पुराणों का प्रणयन निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिये भगवान् विष्णु द्वारा स्थापित गणपति- मूर्ति का पूजन किया था।

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