श्रीगणेशपुराण-उपासना-खण्ड-अध्याय-17
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
सत्रहवाँ अध्याय
भगवान् विष्णु का मधु-कैटभ से मल्लयुद्ध करना, उन्हें जीतने में अपने को असमर्थ समझ गन्धर्वरूप से गायन-वादनकर भगवान् शिव को प्रसन्न करना और भगवान् शिव का उन्हें गणेशजी के षडक्षरमन्त्र का उपदेश देना
अथः सप्तदशोऽध्यायः
मन्त्रोपदेश

भृगुजी बोले — जबतक भगवान् विष्णु [निद्रा त्यागकर] उठते, तबतक उन दोनों (मधु और कैटभ) – ने स्वर्ग पर आक्रमण कर इन्द्र, यम और कुबेर के भवनों को अपने अधीन कर लिया ॥ १ ॥ उन दोनों (मधु और कैटभ) – को देखकर देवता सभी ओर को पलायन करने लगे। [ उनमें से] कुछ चक्कर खाकर गिर गये, कुछ मूर्च्छित हो गये और कुछ अन्य लड़खड़ा गये ॥ २ ॥ तब भगवती योगनिद्रा द्वारा निद्रावस्था से मुक्त किये गये भगवान् श्रीहरि ने उन सभी देवताओं को आश्वासन देकर उन दोनों (मधु और कैटभ ) – से युद्ध प्रारम्भ किया, जिससे सम्पूर्ण देवताओं, शेषादि सभी नागों, मुनियों, यक्षों और राक्षसों पर उनके द्वारा किये गये आक्रमण का निवारण किया जा सके ॥ ३-४ ॥

किरीट-कुण्डल धारण किये शंख-चक्र-गदाधारी उन भगवान् श्रीहरि की वहाँ (उस रणांगण में) ऐसी शोभा हुई, जैसे घने नीले बादल की श्यामल छवि हो ॥ ५ ॥ तब उन भगवान् श्रीहरि ने महान् ध्वनि करने वाले शंख को बजाया। उस महान् शब्द से पृथ्वी और अन्तरिक्ष क्षुभित हो गये ॥ ६ ॥ उस पाञ्चजन्य नामक महान् शंख की ध्वनि सुनकर उन दोनों के हृदय विदीर्ण-से हो गये। तब उन दोनों ने भयभीत होकर आपस में एक-दूसरे से कहा — ॥ ७ ॥

हम दोनों ने भूमण्डल, पाताल और इक्कीस स्वर्गों में सम्यक् रूप से आक्रमण किया, परंतु ऐसी ध्वनि नहीं सुनी, जिससे हम दोनों के वज्रसदृश हृदय काँप उठें, अतः ऐसे बलवान् पुरुष के साथ हमें युद्ध करना चाहिये ॥ ८-९ ॥ युद्ध की इच्छा की शान्ति के लिये हमें युद्ध करना चाहिये, चाहे विजय मिले या पराजय । या तो हम इस शत्रु का वध करेंगे या मरकर पुनर्जन्म प्राप्त करेंगे ॥ १० ॥

उन दोनों ने इस प्रकार का निश्चय करके युद्ध की इच्छा वाले श्रीहरि से कहा — हे पुरुषश्रेष्ठ! हमारी रणेच्छा की शान्ति के लिये तुम दिखायी दिये हो । अब हम दोनों के दृष्टिगोचर हो जाने पर तुम कैसे श्रेष्ठता को प्राप्त कर सकते हो?॥ १११/२

[ भृगु] मुनि बोले — [हे राजन्!] उन दोनों की इस प्रकार की बात सुनकर विष्टरश्रवा भगवान् श्रीहरि ने कहा — ॥ १२ ॥

श्रीहरि बोले — हे महादैत्यो! तुम दोनों ने ठीक ही कहा है, अब तुम दोनों मुझसे यथेष्ट युद्ध करो। [वैसे] कोई भी अपने मरण की कामना स्वयं नहीं करता ॥ १३ ॥

वे दोनों [ मधु और कैटभ ] बोले — हे देवेश ! आप चार भुजाओं वाले हैं, इसलिये आप हम दोनों को बाहुयुद्ध प्रदान करें अर्थात् हम दोनों से बाहुयुद्ध करें ॥ १३१/२

मुनि बोले — [ हे राजा सोमकान्त !] उनके ऐसा कहने पर भगवान् श्रीहरि ने प्रसन्नतापूर्वक ‘तथास्तु’ कहा ॥ १४ ॥ चतुर्भुज भगवान् श्रीहरि ने अपने आयुधों का त्यागकर उन दोनों से युद्ध करना प्रारम्भ किया। वे दोनों (मधु और कैटभ) भुजाओं से ताल ठोंकते हुए श्रीहरि का वध करने के लिये उनके सिर पर अपने सिर से, जंघाओं पर जंघाओं से, कुहनियों पर कुहनियों से, भुजाओं पर भुजाओं से, टखनों पर टखनों से, नासिका पर नासिका से, मुट्ठियों पर मुट्ठियों से, पीठ पर पीठ से प्रहार कर रहे थे और उन्हें मण्डलाकार (गोल-गोल ) घुमा भी रहे थे ॥ १५–१७ ॥

[ ब्रह्माजी कहते हैं — ] हे महामुने ! इस प्रकार उनका (विष्णु और मधु-कैटभ का) वह आपस का युद्ध बहुत समय तक चलता रहा और पाँच सहस्र दिव्य वर्ष बीत गये, परंतु भगवान् श्रीहरि उन दोनों को जीतने में समर्थ नहीं हो सके। तब उन्होंने गानविशारद गन्धर्व का रूप धारण किया और वन के अन्तः भाग में जाकर वीणावादन और सुन्दर गायन प्रारम्भ किया । [ उनके इस गायन और वादन को सुनकर]  हरिण, हिंसक पशु, मनुष्य, देवता, गन्धर्व और राक्षस अपने-अपने क्रियाकलाप छोड़कर उसे सुनने में तत्पर हो गये। उनके इस आलाप को कैलासपर्वत पर विराजमान भगवान् शंकर ने बार-बार सुना ॥ १८–२१ ॥

तब भगदेवता के नेत्रों का हरण करने वाले भगवान् शंकर ने निकुम्भ और पुष्पदन्त से कहा कि ‘यह जो वन में गायन कर रहा है, उसे शीघ्र ले आओ’ ॥ २२ ॥

तब उन दोनों ने वहाँ जाकर उन गन्धर्वरूपधारी श्रीहरि का दर्शन किया और उनसे कहा कि हे निष्पाप ! तुम्हारे गीत की ध्वनि सुनकर देवाधिदेव भगवान् शंकर अत्यन्त हर्षित हुए हैं, उन्होंने तुम्हारे गायन का श्रवण करने के लिये तुम्हें बुलाया है, तुम हम दोनों के साथ शीघ्र ही उनके पास चलो ॥ २३-२४ ॥ उन दोनों की ऐसी बात सुनकर वे शिवभक्त गन्धर्वरूपी विष्णु उन दोनों के साथ वहाँ गये, जहाँ देवाधिदेव महेश्वर थे । वहाँ उन्होंने अर्धचन्द्र को सिर पर धारण किये हुए, गजासुर के चर्म को परिधान के रूप में पहने हुए, रुण्डमाला से विभूषित, पिंगल वर्ण की जटाओं से शोभित, सर्प का यज्ञोपवीत धारण किये हुए पार्वतीवल्लभ [भगवान् शिव]-को देखा और शरणागतों के कष्टों को नष्ट करने वाले भगवान् विश्वेश्वर को पृथ्वी पर मस्तक रखकर प्रणाम किया ॥ २५-२७ ॥

तब उन गिरिशायी भगवान् शिव ने उन अधोक्षज विष्णु को अपने हाथों से उठाकर उन्हें आसन प्रदान किया और उनका पूजन किया ॥ २८ ॥ तब उन [गन्धर्वरूपधारी] श्रीहरि ने कहा कि आज मेरा जन्म सफल हो गया; जो कि आज मुझे धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष के प्रदायक आपका दर्शन हो गया ॥ २९ ॥

तदनन्तर उन गन्धर्वरूपधारी श्रीहरि ने गानपरायण होकर वीणा के निनाद, विविध आलाप और पदों के मधुर गान से उन देवाधिदेव को तथा स्कन्द, गणेश्वर, देवी पार्वती, देवताओं और ऋषियों को सन्तुष्ट किया। तब महेश्वर भगवान् शंकर ने शंख-चक्र-गदा-पद्म और सुन्दर पीताम्बर धारणकर प्रकट हुए श्रीहरि विष्णु का आलिंगन कर प्रेमपूर्वक कहा हे हरे ! मुझे तुम्हारे गायन से परम प्रसन्नता प्राप्त हुई है। तुम मुझसे वर माँगो, मैं तुम्हारी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करूँगा ॥ ३०-३२१/२

भृगुजी बोले [हे राजन्!] तब स्वयम्भू भगवान् विष्णु ने उन दोनों दैत्यों (मधु-कैटभ) – का सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा — ॥ ३३ ॥

श्रीहरि बोले — हे करुणानिधान भगवान् शिव ! निद्रित अवस्था में क्षीरसागर में शयन करते समय मेरे कर्णमल से मधु-कैटभ [ नामक दो दानव] उत्पन्न हुए। वे ब्रह्माजी को खाने के लिये उद्यत हो गये। तब उन्होंने भगवती निद्रादेवी की स्तुति की, जिनसे मैं प्रतिबोधित (जाग्रत्) हुआ। तदनन्तर मैंने उन दोनों से मल्लयुद्ध किया, परंतु मैं उनको जीतने में समर्थ न हो सका, इसीलिये मैंने ऐसा किया अर्थात् गन्धर्वरूप धारण करके गायन से आपको सन्तुष्ट किया। अब मुझे उनके वधका उपाय बतायें ॥ ३४-३६ ॥

भगवान् शिव बोले — हे विष्णो! तुम बिना गणेशार्चन किये रणभूमि में चले गये थे, इसीलिये तुम शक्तिहीन हो गये और महान् कष्ट को प्राप्त किया। अब तुम गणेश का पूजन करके ही युद्ध के लिये जाओ। वे (गणेश) अपनी माया से उन दोनों दानवों को मोहित कर  देंगे। मेरी कृपा से तुम उन दोनों दुष्टों का वध कर सकोगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३७-३८१/२

श्रीहरि बोले — हे शिवजी ! मैं विनायक गणेश की उपासना कैसे करूँ ? यह बतलाइये ॥ ३९ ॥

ईश्वर (शिवजी ) बोले — हे भगवन् ! गणेश्वर के सात करोड़ मन्त्र कहे गये हैं । उनमें भी अनेक महामन्त्र हैं। उनमें भी एकाक्षर मन्त्र महान् है, एक अन्य विशिष्ट महामन्त्र षडक्षर महामन्त्र है । उन दोनों में से एक महामन्त्र मैं तुमको बतलाता हूँ ॥ ४०१/२

[ भृगु] मुनि बोले — [हे राजन्!] तब एकाक्षर मन्त्र को छोड़कर [ भगवान् शिव ने] मन्त्रशास्त्रीय सिद्ध-शत्रु आदि की प्रक्रिया से निर्णीत तथा ॠण-धन चक्र से शोधित 1  षडक्षरमन्त्र श्रीहरि को बताया । गणेशजी का यह महामन्त्र मंगलकारी और सम्पूर्ण सिद्धियों को प्रदान करने वाला है ॥ ४१-४२ ॥

[ भगवान् शिव ने कहा — हे हरे ! ] ‘इसके अनुष्ठान – मात्र से तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जायगा।’ तब वे श्रीहरि उसका अनुष्ठान करने के लिये शीघ्र ही चल दिये ॥ ४३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत उपासनाखण्ड में ‘मन्त्रोपदेश’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

1. जैसे विवाह सम्बन्ध निश्चित होने के पूर्व नाड़ी, भकूट आदि का ज्योतिषशास्त्र के अनुसार विचार किया जाता है, वैसे ही मन्त्र -दीक्षा- निर्णय के पूर्व साधक और मन्त्र के सम्बन्ध का विचार भी मन्त्रशास्त्र के अनुसार किया जाता है। इसके अन्तर्गत साधक के नाम के वर्ण आदि मन्त्र के वर्ण आदि का सम्बन्ध मुख्य रूप से कुलाकुलचक्र, राशिचक्र, नक्षत्रचक्र, अकडमचक्र, अकथहचक्र, ऋणि-धनिचक्र के अनुसार विचार किया जाता है। परिणाम अनुकूल होने पर ही साधक को मन्त्र का जप करना चाहिये।

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